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________________ हैं। स्वमति अनुसार वर्तन से वस्तुतः मन की ही सेवा होती है और परिणाम में दोष का पक्ष, गुणों का द्वेष, उत्सूत्र वचन, आदि विविध दोष प्रकट होते हैं। वर्तमान में विशिष्ट ज्ञानियों का अभाव है। फिर भी 'संयम खपकरतांमुनि नमिये देशकाल अनुमाने रे' यह उपाध्याय श्री यशोविजयजी का वाक्य हृदयंगमकर ऐसे उत्तम गुरु की निश्रा में रहकर आराधक बनना हितकर है। अकेले ज्ञान को पंगु एवं अकेली क्रिया को निष्फल बतायी है। कहा भी है कि 'ज्ञानस्य फलं विरतिः'। अर्थात् त्याग-वैराग्य बिना का ज्ञान, फल रहित वन्ध्या तुल्य है और केवल क्रिया का पक्ष अंधात्मा की क्रिया तुल्य अहितकर है। इस विषय में निश्चत-व्यवहार, उत्सर्ग-अपवाद से विधि-निषेध विशेष है। अतः आत्म साक्षी से ऋजुभाव द्वारा बहिरात्मदशा दूर हो और अंतरात्म दशा प्रकट हो वैसे मार्ग पर चलना हितकर है। वृद्धवाद ऐसा है कि वेश्या जहाँ रहती हो उस मार्ग से गोचरी हेतु जाने से चित्त का आकर्षण होने से चोथे व्रत में, आहारादि ग्रहण करते शुद्धि में अनुपयोग से हिंसा होने से प्रथम व्रत में, उस स्त्री को, प्राप्त करने, पहचानने बोलने आदि में द्वितीय व्रत में, तीर्थकर अदत्त होने से तृतीय व्रत में,स्त्री में ममत्व होने से पंचमव्रत में अतिचार लगते हैं। परिणाम में भाव से संयम के परिणामों का नाश और द्रव्य से वेष भी छोड़ने का बनता है, ऐसे एक दोष से पांचों महाव्रतोंका भंग होकर उससे द्रव्यभाव चारित्रकी हानि होती है। जो कि साधु को विविध अचित्त पानी लेने का आगमों में विधान है फिर भी ग्राहक-दाता के भावधर्म की रक्षा के ध्येय से या अन्य कारणों से यह विधि वृद्ध परंपरा . से बंध दिखती है। वर्तमान में तो केवल तीन उकाले वाला शुद्ध पानी लेना यही प्रथा है। गुड-शक्कर आदि के धोवण, द्राक्षादि फलों का पानी तैयार करने में अथवा लेने में लोलुपता होने से आधाकर्मी आदि दोषों का संभव है। इसमें उबाले हुए पानी में भी अधिकता से आधा कर्म आदि दोष लगतें हैं तो भी उससे रस लोलुपता से बचने रूप भाव धर्म की रक्षा शक्य है। हा, चाहे उतना मिलने से उसका उपयोग बढ़ता है यह हितकर नहीं है, अतः आत्मार्थी साधुको विवेक करना आवश्यक है। गृहस्थ के जीवन में धन की मुख्यता होने से उसमें धन खर्च न हो या कम हो तो ऐसी वस्तु के दान को गृहस्थ महत्त्व न दे, पर साधु जीवन में धर्म की मुख्यता होने से संयम धर्म का नाश न हो वैसी अति मूल्यवान भी किंमत बिना की एवं संयम में उपकारक अल्प मूल्य वाली भी अति मूल्यवान माननी चाहिए। अर्थात् साधु को घी या पानी निर्दोष हो तो दोनों समान उपकारक हैं। दोषित आहार सम दोषित पानी भी संयम को हानि करता है। फिर जोर श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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