SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एयंपि हु सोऊणं गुरुभत्ति नेव निम्मला जस्स । भवियव्वया पमाणं, किं भणिमो तस्स पुण अन्नं ॥२९॥ इस वर्णन को श्रवणकर (पढ़कर) भी जिसके हृदय में गुरुभक्ति उत्पन्न नहीं होती। उसके लिए तो भवितव्यता ही प्रमाण भूत है उसके विषय में दूसरा क्या कहें?।।२९।। साहूण साहुणीणं सावयसड्डीण एस उवएसो। दुण्हं लोगाण हिओ, भणिओ संखेवओ एत्थ ॥३०॥ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं के लिए उभयलोक में हितकारी उपदेश यहाँ संक्षेप में कहा है।।३०।। परलोय लालसेंणं किं वा इहलोयमत्तसरणेणं । हियएण अहव रोहा जह तह वा इत्थ सीसेणं ॥३१॥ जेण न अप्पा ठविओ, नियगुरुमणपंकयम्मि भमरोब्ब । किं तस्स जीविएणं, जम्मेण अहव दिखाए? ॥३२॥ परलोक की इच्छा से या इस लोक में एक मात्र गुरुभगवंत ही शरणभूत है ऐसे भाव से हृदय के बहुमान पूर्वक मान से या दबाव से टुंक में जिस किसी भी रीति से जिन शिष्यों ने स्वयं के गुरु के मन रूपी कमल के विषय में भ्रमर सम स्वयं के आत्मा को स्थापन नहीं किया है उसके जीने से, जन्म से एवं दीक्षा से क्या? जिस प्रकार भ्रमर कमल में भ्रमण करता है उसी प्रकार गुरु केचित्तरूपी कमल में स्वयं के आत्मा को स्थापन करना है। जो आत्मा यह नहीं कर सकते उनका जन्म जीवन एवं दीक्षा सब व्यर्थ है।।३१-३२।। जुत्ताजुत्त वियारो, गुरुआणाए न जुज्जए काउं । दइवाओ मंगुलं पुण, जइ हुज्जा तंपि कल्लाणं ॥३३॥ गुरु आज्ञा के विषय में युक्तायुक्त का विचार करना योग्य नहीं है। कभी अयुक्त आज्ञा होगी तो भी उससे आत्मकल्याण ही होगा।॥३३॥ सिरिधम्मसूरि पहूणो, निम्मल कित्तीए भरियभुवणस्स । सिरिरयणसिंहसूरी, सीसो एवं पयंपेइ ॥३४॥ जिनकी निर्मल कीर्ति से पूरा विश्व भरा हुआ है ऐसे धर्मसूरिप्रभु के श्री रत्नसिंह सूरि नामक शिष्य इस प्रकार कहता है। मूलगुण हीन गुरु को विधिपूर्वक छोड़ने का विधान भी है। श्रामण्य नवनीत x
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy