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प्रस्तावना आज हमें मोक्ष के क्रमिक भव्य साधनामार्ग का अप्रतिम प्रतिपादन करने वाला 'श्री पंचसूत्र' महाशास्त्र हिन्दी के अनुवाद सहित प्रकाशित हुआ देख अपूर्व आनन्द होता है। शायद हिन्दी अनुवाद का यह प्रथम ही प्रकाशन है।
इस महाशास्त्र के निर्माण का हेतु उदात्त एवं गम्भीर है। यह संसार जन्मजरा-मृत्यु, रोग-शोक-संताप, इष्ट वियोग-अनिष्ट-संयोगादि महादुःखों से भरा हुआ है। इसमें जीव अनादि काल से सूक्ष्म निगोद (सूक्ष्म अनंतकाय वनस्पतिशरीर) में भटकता हुआ अनंत पुद्गलपरावर्त काल तक अनंत दु:ख का वेदन करने के बाद भवितव्यतावश बादर निगोद, एवं पृथ्वीकायादि योनि के व्यवहार में आता है। कई काल तक अकाम कर्म-निर्जरा के द्वारा कर्म से हलका होकर पंचेन्द्रियपना पाकर भी मोहवश दुष्कृत्य करके नीचे गिरता है। यों पतनउत्थान में अनंतकाल बीतने पर और अनंत पुण्यराशि बढ़ने पर दश दृष्टान्तानुसार दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त होता है। फिर भी कुकर्म करने से वहां से गिरने पर अधम योनियों में कई काल भटकना पड़ता है। पुनः मानवभव, पुनः पतन ऐसे करते करते कदाचित् अनन्त-अनन्तादि पुण्यराशि के बल पर जीव को मानवभव, आर्यक्षेत्र, आर्यकुल, आरोग्य आदि सद्धर्म की सामग्री प्राप्त होती है।
अब पुनः अधःपतन से बचने के लिए त्रिलोकबन्धु जगदुद्धारक श्री अरिहंत परमात्मा की आज्ञा की उपासना करनी चाहिए। इस आज्ञा के कई शास्त्र है, इनमें से प्रस्तुत पंच सूत्र शास्त्र सरल रूप से मोक्षमार्ग की व्यवस्थित व सक्रिय (Concrete) साधना की राह दिखलाता है। यों तो जिनाज्ञानुसार, हिंसादि पापों के सर्वथा त्रिविध विविध त्याग स्वरूप सर्वविरति (निष्पाप साधु जीवन) मोक्ष का बिलकुल सीधा रास्ता है, और सम्यक्त्वमूलक द्वादशव्रत स्वरूप देशविरति (श्रावकजीवन) जीव को समर्थ बनाकर सर्वविति के स्वीकार एवं पालन द्वारा मोक्ष प्रदान करने वाला कुछ टेढ़ा रास्ता है, एवं उनके प्रतिपादन करने वाले कई शास्त्र हैं, फिर भी यह 'पंचसूत्र' शास्त्र इस मोक्षमार्ग का ऐसे अनोखे ढंग से प्रतिपादन करता है कि मानो शास्त्र पढ़ते ही तुरन्त उसे जीवन में उतारने का उल्लास हो जाए। विषय की भव्यता के साथ साथ यह ग्रन्थ बालगम्य, प्रौढ़, मनोरम, प्रवाहशील काव्य भाषा, श्रेष्ठ योगग्रन्थरूपता, उपाधिसंतप्त को निस्सीम शांति का पथप्रदर्शन एवं संक्षिप्त नित्यस्वाध्यायोपयोगिता इत्यादि विशेषताओं से भरपूर है।
सुकोमल मधुमधुर प्राकृत भाषा में संदृब्ध यह श्री पंचसूत्र महाशास्त्र