SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावप्रधान है, और यह भी कारण है कि उसमें अचिंत्य चिन्तामणि तुल्य भगवान के प्रति बहुमान (ममत्व) निहित है,क्योंकि भगवान की ऐसी आज्ञा है कि जो मुझे भाव से स्वीकार करता है, वह गुरु को स्वीकार करता ही है। स्वीकार का तत्त्व इस प्रकार व्यवस्थित है। अन्यथा गुरु को स्वीकार किये बिना या गुरु का बहुमान किये बिना जो प्रतिलेखना आदि क्रिया की जाती है, वह वास्तव में अक्रिया (असक्रिया) है। वह कुलटा नारी की उपवास क्रिया के समान स्वच्छन्द क्रिया होने से तत्त्व ज्ञानियों द्वारा निन्दित है। ऐसी क्रिया निष्फल या इष्ट मोक्ष की अपेक्षा अन्य सांसारिक फल वाली होती है। विष मिश्रित अन्न खाने से होने वाली विपाकदारुण तृप्ति रूपी फल के समान वह क्रिया विराधनासेवन से अनिष्ट एवं तुच्छ फल ही प्रदान करती है। अशुभ कर्म के अनुबंध वाला आवर्त यानी भवभ्रमण ही उस विराधना स्वरूप विष का फल है।।७।। __ मूल - आयओ गुरुबहुमाणो अवंझकारणत्तेण। अओ परमगुरुसंजोगी। तओ सिद्धी असंसयो एसेह सुहोदए पगिट्टतयणुबंधे भववाहितेगिच्छी। न इओ सुन्दरं परं। उवमा इत्थ न विज्जइ। . स एवं पण्णे एवं भावे, एवं परिणामे, अप्पडिवडिए, वड्ढमाणे तेउल्लेस्साए दुवालसमासिएणं परिआएणं अइक्कमइ सबदेवतेउल्लेसं, एवमाह महामुणी॥८॥ अर्थः गुरु का बहुमान ही, मोक्ष का अमोघ कारण होने से, मोक्षरूप है। गुरु का बहुमान करने से परमगुरु (परमात्मा-तीर्थङ्कर) का संयोग होता है। उससे निःसंशय सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है। इसलिए गुरु का बहुमान खुद शुभोदय का कारण होने से शुभोदय है, और वह भी तथा आराधन के उत्कर्षवश प्रधान शुभोदय की परंपरा वाला एवं भवव्याधि की चिकित्सा करने वाला होता है। अतः गुरु बहुमान से बढ़कर सुन्दर अन्य कुछ भी नहीं है। भगवान तीर्थङ्कर के प्रति बहुमान इसमें अन्तःप्रविष्ट होने की वजह प्राप्त सौन्दर्य से वास्तव में इसकी कोई उपमा ही नहीं है। .... वह दीक्षित साधु निर्मल विवेक के कारण इस प्रकार की बुद्धि वाला, प्रकृति से ही इस प्रकार के भाव वाला और कर्म के क्षयोपशम वश इसी प्रकार के परिणाम वाला होता है। वह संयम से च्युत न होता हुआ, शुद्ध प्रभाव रूपी तेजोलेश्या से अवश्य वृद्धि पाता हुआ, सिर्फ बारह महीनों की दीक्षा पर्याय से ही समस्त देवों की तेजोलेश्या (सुख) को लांघ जाता है, अर्थात् उसे अलौकिक चित्त प्रशमसुख प्राप्त हो जाता है, महामुनि भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा है ।।८।। . मूल - तओ सुक्के सुक्काभिमाई भवड़ा पायं छिण्णकम्माणुबंधे खवइ लोगसण्ण। पडिसोअगामी अणुसोअनिवित्ते, सया सुहजोगे एस जोगी विआहिए। श्रामण्य नवनीत २६
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy