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________________ पंच सूत्र [तृतीय सूत्र] प्रव्रज्याग्रहण - विधि मूल - परिभाविए साहुधम्मे जहोदियगुणे जइज्जा सम्ममेअंपडिवज्जित्तए अपरोवतावो। परोवतावो हि तप्पडिवत्तिविग्छ। अणुपाओ खु एसो। न खलु अकुसलारंभओ हिओ . अप्पडिबुद्धे कहिंचि पडिबोहिज्जा अम्मापियरे-उभयलोगसफलं जीविअं, समुदायकडा कम्मा समुदायफलत्ति एवं सुदीहो अविओगो। अण्णहा एकरुखनिवासिसउणतुल्लमेओ उद्दामो मच्चू, पच्चासण्णो यो दुल्लहं मणुअत्तं समुद्दपडिअरयणलाभतुल्लो अइप्पभूआ अण्णे भवा दुक्खबहुला मोहंधयारा अकुसलाणुबंधिणो अजुग्गा सुद्धधम्मस्स। जुग्गं च एअं पोअभूअं भवसमुद्दे, : जुत्तं सकज्जे निउंजिउं संवरठइअच्छिदं नाणकण्णधारं तवपवणजवणं ॥१॥ अर्थ : पूर्व सूत्र में कथित विधि के अनुसार साधु धर्म की परिभावना से परिभावित होकर और पूवोक्त गुण प्राप्त कर लेने के अनन्तर साधुधर्मको स्वीकार करने के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए। मगर ऐसा करते किसी (माता पितादि) को संताप उपजाना योग्य नहीं। दूसरों को संताप होना साधुधर्मका स्वीकार करने में बाधक है। दूसरों को संताप उत्पन्न करके साधुधर्मको प्राप्त करना यह तत्त्वतः हित का उपाय ही नहीं है, क्योंकि दूसरों को पीड़ा पहुँचाना अकुशल कार्य है और उससे किसी का हित नहीं हो सकता। महासत्त्वों के माता पिता प्रायः अप्रतिबद्ध नहीं होते, तथापि कदाचित् मातापिता प्रतिबोध पाये हुए न हों और उन्हें वियोग का संताप होता हो तो माता-पिता को भी संसार त्यागने के लिए प्रतिबोध दे कि-हमें जो यह जीवन मिला है वह इहभव और परभव को सफल बनाने से ही प्रशस्त होगा। हम लोग चारित्र की आराधना करेंगे तो अपना अवियोग (संयोग) लम्बे समय तक चालू रहेगा, क्योंकि समूह रूप से उपार्जन किये हुए शुभाशुभ कर्म सामूहिक रूप से ही फल प्रदान करते हैं। अगर हमने एकसी आराधना न की तो एक वृक्ष पर रात्रिवास करके प्रभात में बिछुड़ जाने वाले पक्षियों के समान हमारी स्थिति होगी - थोड़े काल के पश्चात् हम भी अलग-अलग गतियों में श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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