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________________ एवं अत्यन्त प्रणिधान (कर्त्तव्यनिर्णय) के बल से समेत धर्मगुणों (व्रतों) को अंगीकार करना चाहिए। वे धर्मगुण (ये हैं १) स्थूल प्राणातिपात का त्याग, अर्थात् निरपराधी त्रस जीव को जानबूझ कर हनने की बुद्धि से हनन न करना; (२) स्थूल मृषावाद का त्याग, कन्या-अलीक आदि झूठ न बोलना, (३) स्थूल अदत्तादान का त्याग, अर्थात् चुंगीचोरी, झूठा नाप तोल, ताला तोड़कर चोरी करना आदि राजदंडनीय एवं लोकनिंदनीय चोरी का त्याग, (४) स्थूल मैथुन का त्याग अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों के साथ संभोग न करना; और (५) स्थूल परिग्रह विरमण अर्थात् धन-धान्य आदि की की हुई मर्यादा का उल्लंघन न करना। 'इत्यादि' शब्द से तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का ग्रहण करना चाहिए ।।२।। मूल - पडिवज्जिऊण पालणे. जइज्जा, सयाउडणागाहगे सिया, सयाउडणाभावगे सिआ, सयाउडणापरतंते सिआ। आणा हि मोहविसपरममंतो, जलं रोसाइजलणस्स, कम्मवाहितिगिच्छासत्थं, कप्पपायवो सिवफलस्स ॥३॥ ____ अर्थ : धर्म गुणों (व्रतों) को अंगीकार करके पालन करने में यत्नशील होना चाहिए। यत्नशील होने के लिए आगमों के पठन, श्रवण द्वारा जिनाज्ञा (जिनागम) का ग्राहक होना चाहिए। अनुप्रेक्षा द्वारा जिनाज्ञा का भावक-चिन्तक होना चाहिए और अनुष्ठान संबन्ध में सदैव जिनाज्ञा के परतंत्र-अधीन रहना चाहिए। जिनाज्ञा मोह रूपी विष को दूर करने के लिए परम मंत्र है, क्रोधादि कषायों की अग्नि को शान्त करने के लिए जल है, कर्म रूपी व्याधि के क्षय के लिए चिकित्साशास्त्र है, और मुक्तिरूपी फल को देने के लिए कल्पतरु है ।।३।। मूल - वज्जिज्जा अधम्ममित्तजोगं, चिंतिज्जाऽभिणवपाविए गुणे, अणाइभवसंगए य अगुणे। उदग्गसहकारित्तं अधम्ममित्ताणं, उभयलोगगरहिअत्तं, असुहजोगपरंपरं च ॥४॥ अर्थः साधु जीवन की योग्यता प्राप्त करने के लिए अकल्याण मित्रों का सम्पर्क त्यागना चाहिए, अर्थात् जो आत्मकल्याण के बाधक हैं; वे चाहे सगे सम्बन्धी ही क्यों न हों उनके संसर्ग से दूर रहना चाहिए। साथ ही नवीन प्राप्त किये हुए अणुव्रतादि गुणों का और अनादिकालीन भवपरम्परा से साथ लगे हुए अविरत्यादि दुर्गुणों का चिन्तन करना चाहिए। सोचना चाहिए कि अधर्ममित्र पाप में अनुमति आदि द्वारा दुर्गुणों में अत्यन्त सहकारी है। इस लोक और परलोक के सत् पुरुषार्थों का वे नाश करते हैं और अशुभ योगों की परम्परा का सर्जन करते हैं, अतएव उनका सम्पर्क अकुशलानुबंधी होने से वर्ण्य है ॥४॥ मूल - परिहरिज्जा सम्मं लोगविरुद्धे, करुणापरे जणाणं, न ख्रिसाविज्ज श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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