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मूल - तस्स पुण विवागसाहणाणि- (१) चउसरणगमणं (२) दुक्कडगरिहा (३) सुकडाण (णाऽऽ) सेवणं ॥४॥
अर्थ : पूर्वोक्त तथाभव्यत्व का परिपाक करने के तीन उपाय हैं - (१) अर्हन्त, सिद्ध, साधु और वीतरागभाषित धर्म की शरण ग्रहण करना (२) इस भव और पर भव में किये गये पापों की आत्मसाक्षी और गुरुसाक्षी से निन्दा करना एवं (३) सुकृतों का सेवन और अनुमोदन करना ।।४।।
मूल - अओ कायव्वमिणं होउकामेणं सया सुप्पणिहाणं भुज्जो भुज्जो संकिलेसे, तिकालमसंकिलेसे ॥५॥
__ अर्थ : मोक्षार्थी भव्य जीव को पूर्वोक्त तीन साधनों का सर्वदा सुप्रणिधान अर्थात् कर्त्तव्यनिर्णय एवं एकाग्रतापूर्वक सेवन करना चाहिए। ऐसा सेवन जब चित्त में संक्लेश हो अर्थात् राग-द्वेष की तीव्र परिणति हो तब पुनः पुनः और जब संक्लेश न हो तब त्रिकाल (त्रिसंध्य) करना चाहिए। इन साधनों का सुप्रणिधान करते समय इनमें अतिशय उपादेयबुद्धि और चित्त की अत्यन्त एकाग्रता होनी चाहिए ।।५।।
मूल - जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा, अणुत्तरपुण्णसंभारा, खीणरागदोसमोहा, अचिंतचिंतामणी भवजलहिपोआ, एगंतसरणा अरहंता सरणं ॥६॥
अर्थ : अरहन्त भगवान का शरण ग्रहण करने की विधि तीनलोक के परम वास्तविक श्रेष्ठ नाथ, लोकोत्तर (तीर्थंकर-नामकर्मादि) पुण्यसमूह निधि, राग-द्वेष और मोह का सर्वथा क्षय कर देने वाले, अचिंत्य समस्त लाभों को प्रदान करने वाले अचिंत्य चिंतामणि, संसार सागर में जहाज के समान और एकांत शरणरूप अर्थात् शरणागत का सदा के लिए सम्पूर्ण हित करने वाले अरहन्त देव मेरे लिए जीवनपर्यन्त (मोक्षपर्यन्त) शरण हैं आपके शरण में मैं हूँ, आप ही मेरे आधार हैं ।।६।।
मूल - तहा पहीणजरामरणा, अवेअकम्मकलंका, पणट्ठयाबाहा, केवलनाणदंसणा, सिद्धिपुरनिवासी, निरुवमसुहसंगया, सब्बहा कयकिच्चा सिद्धा सरणं ॥७॥
___अर्थ : इसी प्रकार जो सदा के लिए जरा और मरण से रहित हो चुके हैं, कर्मकलंक से रहित है, सब प्रकार की बाधा-पीड़ा को नष्ट कर चुके हैं, केवलज्ञानकेवलदर्शन से सम्पन्न हैं, सिद्धिपुर (मुक्ति) के निवासी हैं, अनुपम आत्मिकसुख से युक्त हैं और पूर्ण रूप से कृतकृत्य हो चुके हैं - जिन्हें कुछ भी करना शेष नहीं रहा है, ऐसे सिद्ध भगवान मेरे लिए शरण हैं-आप ही मेरे आधार हैं ।।७।। मूल - तहा पसंतगंभीरासया, सावज्जजोगविरया, पंचविहायारजाणगा;
श्रामण्य नवनीत