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जं चरिता बहू जीवा, तिन्ना संसारसागरं ॥१०४३ ॥ ति बेमि, सामायारी अज्झयणं २६ ॥
थेरे गणहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइने गणिभावम्मि, समाहिं पडिसंघ ॥४॥ वहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तए । जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तए ॥५॥ खलुंके जो उ जोएइ, विहंमाणे किलिस्सई । असमाहिं च वेएइ, तुत्तओ य से भज्जई ॥ ६ ॥ एगं डसइ पुच्छंमि, एवं विधइ भिक्खणं । एगो भंजइ समिलं, एगो उप्पहपट्टिओ ॥ ७ ॥ एगो पडड़ पासेणं, निवेसइ निविज्जई ।। उक्कुद्दइ उफिडई, सढे बालगवी वए॥८। माई मुद्धेण पडइ, कुद्धे गच्छइ पडिवहं । मयलक्खेण चिट्ठाई, वेगेण य पहावई ॥९॥ छिन्नाले छिंदई सिल्लिं, दुर्द्दते भंजई जुगं । सेऽविय सुस्सुयाइत्ता, उज्जुहित्ता पलायई ॥१०५० ॥ खलुंका जारिसा जुज्जा, दुस्सीसाविह तारिसा । जोइया धम्मजाणंमि, बजंता धिइदुब्बला ॥ १ ॥ इड्ढीगारविए एगे, एगित्थ रसगारवे । सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहणे ॥२॥ भिक्खाऽऽलसिए एगे एगे ओमाणभीरुए थद्धे । एगं च अणुसासंमी, हेऊहिं कारणेहि य॥३॥ सोऽवि अंतर भासिल्लो, दोसमेव पकुव्वई ( पभासइ )। आयरियाणं तं वयणं, पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥ ४ ॥ न सा मम वियाणाइ, नवि सा मज्झ दाहिई। निग्गया होहिई मन्त्रे, साहू अन्नोऽत्थ वच्च३ ॥ ५ ॥ पे (पो)सिया पलिउंचंति, ते परियंति समंतओ। रायविट्ठि व भन्नंता, करिति भिउडिं मुहे ॥ ३ ॥ वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणेहिं पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमंति दिसोदिसिं ॥७॥ अह सारही विचिंतेड़, खलुंकेहिं समागए। किं मज्झं दुट्ठसीसेहिं ?, अप्पा मे अवसी अई ॥८ ॥ जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगद्दहे ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं ॥
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पू. सागरजी म. संशोधित
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