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|तवओ ४ा लिंगिण दव्व-भावि भणिओ पव्वावणाऽणरिहो ॥८९॥ अप्पडि विरओसन्नो न भाव-लिंगारिहोऽणवठ्ठप्पो जो जत्थ जेण||
दूसइ पडिसिद्धो तत्थ सो खेत्ते ॥ १०॥ जत्तियमित्तं कालं, तवसा उ जहन्नएण छम्मासा। संवच्छरमुक्कोसं आसायइ जो जिणाईणं ॥ |९१॥ वासं बारस वासा पडिसेवी, कारणेण सव्वो वि। थोवं थोवतरं वा वहेज, मुञ्चेज वा सव्वं॥ ९२॥ वन्दइ न य वन्दिज्जइ, परिहार-तवं सुदुच्चरं चरइ। संवासो से कप्पड़, नालवणाईणि सेसाणि॥ ९३॥ तित्थयर-पवयण-सुयं आयरियं गणहरं महिड्डियं । आसायन्तो बहुसो आभिणिवेसेण पारञ्ची॥ ९४॥जो य स-लिंगे दुट्ठो कसाय-विस-ए हिं राय-वहगो यो रायगमहिसि-पडिसेवओ य बहुसो पगासो य ॥९५॥ थीणद्धि महादोसो अन्नोऽन्नासेवणापसत्तो यो चरिमाणावत्तिसु बहुसो य पसज्जए जो 3 ॥९६॥ सो कीरइ पारञ्चीलिंगओ १-खेत्त २- कालओ ३ तवओ य ४१ संपागड-पडिसेवी लिंगाओ थीणगिद्धी य ॥ ९७॥ वसहि-निवेसणवाडग-साहि-निओग-पुर-देस-रज्जाओ।खेत्ताओ पारश्ची कुल-गण-संघालयाओवा॥९८॥ जत्थुप्यन्नो दोसो उपजिस्सइय जत्थ नाअगोवा तत्तो कीरइ खेत्ताओ खेत-पारची ॥ ९९॥ जत्तियमेत्तं कालं, तवसा पारञ्चियस्स उ स एव कालो दुविगप्पस्स वि अणवढप्पस्स जोऽभिहिओ ॥१००॥एगागी खेत्त बहिं कुणइ तवं सुविउलं महासत्तो अवलोयणमायरिओ पइदिणभेगो कुणइ तस्स ॥ १०१॥ अणवढप्यो तवसा तव पारची य दो वि वोच्छिन्ना। चोहस-पुव्वधरम्मी, धरन्ति सेसा 3 जा तित्थं ॥ १०२॥ इय एस जीयकप्पो समासओ सुविहियाणुकभ्याए कहिओ, देयोऽयं पुण पत्ते सुपरिच्छिय-गुणमि॥१०३॥इति सिरि-जिणभद्द-खभासमण|॥श्री जीतकल्प सूत्र
[ पू. सागरजी म. संशोपित
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