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॥ २॥
पू.आ.श्री जिनदत्तसूरिविरचितानि
॥आरात्रिक-वृत्तानि ॥ लोणेण पिच्छिय सुनाण सलोणयत्तं, मत्तो परोवि किमिहत्थि जणेसलोणो । अप्पा जलंत जलणस्स सुहम्मिखित्तो, खारा नियोनय तहाविहु तेण चित्तो लोणं न होइ इह तेसि कयाइ जेसि, गीयत्थ सत्थ गुरुणो वयणेण सम्म । सण्णाण-पूयण-निमित्त-मिहत्थि वित्तं, उत्तारिउण लवणं जलणे खिवंति लोणं जियं व वरनाण सलोणयाए, जीवामि नाहमिह जेणु दयाउ जायं । चित्तेघवत्थुमयि नत्थि गुणो जियंते, तासं पयम्मि सरणं मम होउ वण्हेिं नाणं तु जत्थ न जडं तमि हत्थि तत्थ, तत्थण्णओ जडमिमं निसुणंतु लोया। पासेसु तेण भमिऊण भएण तस्स, वण्हेिं पि साहइ जडं जडभाववत्ति ठाणम्मि ठाइ न कयाई समुण्णयम्मि, निए ठिई कुणइ जेण सया गयंतु । नाणे समुण्णय तमे भमिऊण तेण, सव्वं जडं जडमिमं जलणे गयं जं कुग्गाह-ठाण मिह जं न हु तस्स दाणं, चित्ते गयाइ सुह हेउ ठविज्ज जेण।
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