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पू.आ. श्रीपार्श्वचन्द्रसूरिविरचिता
॥स्थापना पञ्चाशिका ॥ जयइ जियाजियवग्गो, समग्गलग्गोवदंसियसमग्गो। संपावियलोगग्गो, वीरजिणो जणियसुहसग्गो
॥१॥ नाणभरकिरणविदलिय, अण्णाणतमस्स सुगुरुदिणमणिणो। उदएणं मह विहसउ, निच्चं मणकमलवणसंडं
॥२॥ जिणवरपडिमाणं जो, वंदण आराहणा विसंवायं । जंपइ संपइ तं पइ, भत्तिसरूवं परूवेमि
॥ ३ ॥ जिणआणा भंगभयं, जइ वि न होहि तं तस्स किं भणिमो।
अत्थि तुम्हाणं तब्भउ, तओ वि तुम्हे तं समं सुणह उद्देस समुद्देसा, णुण्णा पुव्वो सुयम्मि अणुओगो। मुत्तुण तिण्णि तुरियं, कस्साएसा कुणह कहह
॥ ५ ॥ इय सच्चं जाणंता, वियक्खणा केइ समइगारविया। नंदिसुए पण्णत्तं, महानिसीहं न मण्णंति कत्थ वि लेहगकुलिहिय, - दोसविरुद्धं, पयं पुरो काउं। जिणवयणाणुगयं पि हु, पयं न मण्णंति किं भणिमो अइनिद्दोसं एयं, न हु मण्णिज्झइ परस्स दोसेणं । कण्णे पुढे कडि चालणव्व, विउसाण नहु जुत्तं ॥८॥ अण्णम्मि पए संकं, दूसिज्झइ दोसदाणओ अण्णं । चरणामओय करहे, गयवरदहणं किमेयंति
॥९॥ निउणो जत्थ ससंको, सहसा कारेण तं न दूसिज्झा। जं जं जिणआणाए, तं तं सव्वं पमाणिज्झा
॥ १० ॥ अहवा चिट्ठउ एवं, जं सच्चं तस्स सक्खिया बहवे । ताणताण य सिढिलो, लोए भणिओ सुहसहावो ॥११॥
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