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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१२२ ॥ ॥ १२३ ॥ ॥१२४ ॥ वरगंधपुप्फअक्खय-पईवफलधूवनीरपत्तेहिं । नेविज्जविहाणेण य, जिणपूजा अट्ठहा भणिया उवसमइ दुरियवागं, हरइ दुहं कुणइ सयलसुक्खाई। चिंताईयं पि फलं, साहइ पूआ जिणिदाणं धण्णाणं विहिजोगो, विहिपक्खाराहगा सया धण्णा । विहिबहुमाणा धण्णा, विहिपक्ख अदूसगा धण्णा संवेगमणो संबोह-सत्तरं जो पढेइ भव्वजीवो। सिरिजयसेहरठाणं, सो लहइ नत्थि संदेहो श्रीमन्नागपुरीयाहव-तपोगणकजारुणाः । ज्ञानपीयूषपूर्णाङ्गाः, सूरीन्द्रा जयशेकराः तेषां पत्कजमधुपा,सूरयो रत्नशेखराः । सारसूत्रात् समुद्धृत्य, चक्रुः संबोधसप्ततिम् ॥ १२५ ॥ ॥ प्र. १॥ ।। प्र. २ ॥ ॥१॥ पू. आ. श्री अभयदेवसूरी कृत ॥आगम अष्टोत्तरी ॥ सुविशाललोयणदलं विशुद्धदंतं सुकेसरालीढं । अहरुटुपत्तछवियं भवियभमरालिसुजिग्छतं जस परिमल पल्लवियं सुबोहियं नाणभा' किरणेहिं । मह दिसउ वंछियत्थं मुहपउमं वद्धमाणस्स सिरिवद्धमाणसामी समत्त गणि पिडग धारिणाझेय । इकारस्स गणधारा नाम गहणे णमंसामि सिरिवद्धमाण पट्टे गोयम सामी य पढमपट्टधरो। तप्पट्टे सोहम्मो परंपरा तित्थभाविल्लो ॥ २ ॥ ॥३॥ ॥ ४ ॥ 334 For Private And Personal Use Only
SR No.020962
Book TitleShastra Sandeshmala Part 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2009
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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