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पंथ सरिसा पंथ बहुं च कणयसरिसं न य सुवण्णं । धम्मं सरिसो अहम्मो नायव्वो बुद्धिमंतेहिं
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जो हिंसइ सोधम्मो जो न भुंजइ सो तवो । जो न लब्भइ सो साहू जो न रूसइ सो मुणी नय मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्ण वासेण कुसचीरेण न तावसो तवेण तावसो होइ बंभचेरेण बंभणो । पावाई परिहरंतो परिवा[य] उत्ति वुच्चइ तो समणो जइ समणो [ ? सुमणो] भावेणय जह न होइ पावमणो । सयणेय [पर] जणेय समो समो य माणावमाणेसु ॥ १६ ॥
॥ १५ ॥
नत्थि असि कोइ वेसो पिओ य सव्वेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अण्णो वि पज्जाओ
जाइव अप्पमाणा कुल ववएसो विसुद्धओ डिंभो । पंडिच्चंपि पलालं सीलेण विसंवयंतस्स
वेया वागरणं वा भारह रामायणं पुराणाई । जइ पढइ जीववहओ दुग्गइगमणं फुडं तस्स किं ताए पढियाए पय कोडीए पलाल भूयाए । जत्थित्तियं न नायं परस्स पीड़ा न कायव्वा च्छंद सर सद्द जुत्तेवि पवयणे सक्क [य] अक्खर विचित्ते । धम्मो जेहिं न नाओ नवरि तुसा खंडिया हिं
सम विसमपि पढंता विरया पावेसु सुग्गई जंति । सुविसक्कय पाढा दुस्सीला दुग्गइं जंति
भाणस्स हरस्स व अण्णस्स व जीवघायण रयस्स । अवसस्स नरय पडणं जइ से सव्वं-जगं पक्खे
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