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एएण मण्णामि अहं कयत्थो, जं पाविओ सिवपुरमग्गसत्थो । जिणिंदभणिओ धम्मो पसत्थो, संसारजलहीतरणे समत्थो ॥ १९ ॥ भत्तिब्भरो नामसिरो सया हं, विण्णत्तियं परमिट्ठीण काहं । पत्थेमि वत्थु इह किंचि नाहं, भवे भवे दितु सुबोहिलाहं ॥ २० ॥ खमावणं सव्वजीवाण खमणं, आलोयणाई चउसरणगमणं । अणसणं पच्चक्खाणकरणं, अंतम्मि मे हुज्ज समाहिमरणं ॥ २१ ॥ जे भावणाए कुलयं पठंति, एयं सचित्ते परिभावयंति । आणं जिणंदाण सया कुणंति, ते झत्ति निव्वाणसुहं लहंति ॥ २२ ॥
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पू. आ. श्री रत्नसिंहसूरिविरचितम्
॥हितशिक्षा कुलकम् ॥ जइ जीव ! तुज्झ सम्म परलोयपयाणयं वसइ हियए। ता धम्मम्मि पमाओ होज्ज मणागं पि न कयावि मणमोहणविज्जाहि रत्ताण गुरुम्मि जाम बहुमाणो। धित्तेसिं बहुमाणो जइ नो संवेगरंगाओ मण नयणह अनुजीह क्रिय तीहं विरलीकरेसु । संजमवंतु सुवासणउ जउ मुणि कोइ कहेसु किरियपरायण बहुय मुणि दीसहिं वेसु धरंत । विरला केइ सुवासणा जे रंजहिं पुण संत जाणंता अगहिल्ला कह भुल्लाइं दियालजियलोए । विसएहिं भोलिया अह मह वयणं ही कुणंतु कहं?
अज्ज वि किंपि न नटुं जइ चेयसि हंदि किंपि अप्पाणं । विलवणमेत्तट्ठिओ पुण अरण्णरुण्णं समायरसि
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