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से और नावसे, द्रव्यतीर्थ, शत्रुजयादि, नावतीर्थ, ज्ञान दर्शनचारित्रके धारक अनेकन्नव्यजनतारक धर्मोपदेश कारक साधुलोक, इनकीसेवा यथावि धि करनेसे सम्यक्त भूषित होताहै और परंपरासे सिछिलान होताहै, ऐसा नगवती सूत्रमें कहाहै, द्वितीय शतकके पांचवे उद्देशमे ॥
तहा रूवेणंभंते! समणं वा माहणं वा पहुवा समाणस्स किंफला पजुवासणा? गोयमा! सवणफला, सेणंभंते! सवणेकिंफले? णाण फले, सेणंभंते! णाणेकिंफले? विमाणफले, एवं घिरमाणणंपच्चरकाणफले, पच्चरकाणेणं सं जमफले, संजमेणं अणराहयफले, शणराहएणं तवफले, तवेणंवोदाणफले ! वोदाणेणं अकि रियाफले, सेणंभंते! अकिरियाकिंफला? गो यमा! सिछिपजवसाण फला पणत्तेत्ति ॥ स्थैर्य ४ जिन धर्ममे स्थिरता, अन्यमतके चम त्कार देखकेभी विचलित न होना, जैसे सुलसा, सुलसाका वृत्तांत प्रसिझहै ॥ नक्ति ५ प्रवचनका विनय और वेयावच करना, यह देवसंपत् अर
आनंदकी देनेवाली होतीहै जैसे बाऊसुबाऊसा धु, बाऊसाधुने गुरूआदि पांचसौ साधुशोके आ हारादि लेप्रायदेनेकी नक्तिकरनेसे बजानोगक म उपार्जन किया, सुबाऊ साधुने उनसाधुओंकी विश्रामणादि भक्ति करनेसे अतिशय बाऊबल