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ताहै, वहां अनव्य कोई चक्रत्रर्ता आदिलेके छानेक राजाओंकी किईहुई समीचीन पूजासत्कार सन्मा नादिको देखके वाजिनकी ऋद्धिदेखके देवलोक के सुख मिलजाने की इच्छासे दीक्षाग्रहण करते हैं, द्रव्यसाधु होके अपनी प्रतिष्ठा के अभिलाषसे नाव साधुके ऐसा प्रत्युपेणादि क्रियायोंका चरण करते हैं, क्रियाके करनेसे नवमांग्रैवेयक विमानतक उनकी गति होती है, कितने सूत्रपाठमात्र नवपूर्व पढते हैं, कोई कुलकम दशपूर्वतक पढते हैं, कुलकम दश पूर्वतक मिथ्यातनी कहाजाताहै, जोजीवपूरे दशपूर्व पढते हैं उनजीवोंकों अवश्य सम्यक्त प्राप्त होता है, कुलकमदशपूर्व पढनेवालो में सम्यक्त हो ता है नहोनी होताहै, कल्पभाष्यमेभी कहा है ॥ चउदसदस्य अजिन्नेनियमासम्मंतुसेस एजयणा ॥
इसका अर्थ पूरे चउदहपूर्व अथवा पूरेदसपूर्व पढ नेवालेको निश्चय सम्यक्तलाज होता है, उसके अनं तर अनंतवीर्य के प्रसारसे अपूर्वकरणकरके पूर्वोक्त ग्रंथिभेदपूर्वक अनिवृत्तिकरणमे प्रवेशकरतेहैं, वहां यथावत् कर्मोंका दयादिकरके मिथ्यात्वका तीन पुंजकरता है, शुद्ध, मिश्र, और अशुद्ध, पीबेनिवृत्ति करणके सामर्थ्य से कई पहिलेही क्षायोपशमिक सम्य दृष्टि होतेहैं, कितनेही औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो तेहैं, इसका विशेषकथन ग्रंथांतरमे देखलेना ॥ ॥ उस सम्यक्तके प्रकार लिखते हैं |