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दिकारिषु विनयप्रयोगेहि तीर्थकराद्यनज्ञा
स्वरूपा दत्तादानविरमणं पालितं नवतीति, - इसका अर्थ, इस प्रकार शन्य सेंकडों कारणसे वि नय करना चाहिये, क्योंकि केवल शनशनादि तप है ऐसानही विनयनी तपहै, कारणकी आभ्यंतर तपोंमे पठित है, विनयके तप होनेसे क्या? इ सलिये कहते हैं कि तपत्नी धर्म है, केवल संयम रूपी धर्महै ऐसा नही विनयरूप तपभी धर्महै कारण की वह चारित्रका अंश है, इसलिये विन य करना चहिये, किनका विनय करना चहिये? गुरुओंका धर्मोपदेशकोंका, साधुओंका आत्मक ल्याण कारियोंका, तपस्वियोंका अष्टमादितपकने वालोंका, विनय करने से तीर्थंकरका आज्ञा स्वरूप प्रदत्तादानके विरमणका शर्थात् त्यागका पालन होता है अर्थात् शदनादान त्याग करनेसे जो फल होताहै सो विनय करने से होता है, इस सेनी आधुनिक धर्मोपदेष्टा परमोपकारी यतीलो गोंकी पजा प्रत्नावना सत्कार विनयादि करने से किसी प्रकार दोष नहीं है अवश्य करना चहिये।
३ अर वस्तुको कुवस्तु और कुगुरुको सुगुरु समऊने से मिथ्यात्व होता है इसमे क्या कहना ऐसी सरदहणा जिसकी होगी वह मिथ्यात्वी होगा, धर्मोपदेष्टा यतीलोग कुगुरु नही होते हैं उनको जो कुगुरु समझेगा वह वस्तुको कुवस्तु समझने