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मानने योग्य है (५२) माननेका फल कहते हैंसर्व मुनियोंको मानने से गुणानुरागिता अर्थात् माननेवाले गुणग्राही होंगे भर जैन दर्शन की परम उन्नती, इसलोक मे पात्रता होती है अर परलोकमे कुशल होता है (५३) बुद्धिमान पुरुष को सर्वदा विनयी होना, गुणग्राही होना, दो षका त्यागी होना, दयालु होना, उदार होना अर परोपकारी होना चाहिये (५४) वर्तमान का लिक साधुशोंको अपात्र समझनेवाले प्रत्यंत क्रूर चित्त नीच देने लायक रहते भी नदेना यह एक पाप भर निष्कारण साधकी निंदा करनेसे दूसरा पाप ऐसे दो पाप ग्रहण करते हैं सो पापी पापों से दृप्त नही होते हैं ॥ ५५ ॥ जगत् मे प्रसिछ, मुख्य, जैन धर्ममे प्रधान, श्रावकके व्रतोमे बार हवां शाद्य व्रत रूप, अनेक पूज्यों ने दिया हुआ अर आगमके जाननेवाले गणधरादिकोंने ग्रंथो मे वर्णित, ऐसा युक्ति करके युक्त अर निर्विवाद जो दान उसको नविक लोग दिया करें॥५६॥ कब दाता के उद्देशसे, कब याचक अर्थात् पात्र के उद्देशसे, कुब देनेलायक वस्तुके उद्देशसे जिना गम मे निषिद्ध किया है, सर्वथा निषिछ अर्थात् मना नही किया ॥ ५७ ॥ कहीं उत्सर्ग नय से, कहीं अपवादनयसे, निश्चयसे भर कहीं व्यवहार क्षेत्र पात्रादिककी अपेक्षा करके जिनागम मे सूत्रों
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