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वाले मुनींद्र अर्थात् तीर्थंकरादिक संवत्सरी यादिक दान कदापि नही देते ॥ ४० ॥ जैसे गीध यापही मांस ग्रहण करलेता है अर दूसरे के ग्रहण करनेमे किसी प्रकारसे भंग करता है, तैसे लोलुपी लोग छापही सब ग्रहणकर लेता है दूसरेके देने लेनेमे अंतराय करता है उसको गीध पीके समान दुष्ट जानना ॥ ४१ ॥ जिससे दूसरेको संदेह उत्पन्न होय कि इसकों देनेसे पाप होगा वा पुण्य होगा अर प्राप दुर्गतिमे जाय भर जिन शासनकी हानि होय ऐसी पापकी चतुराईकों धिक्कार है ॥ ४२ ॥ खोटा आग्रहरूपी ग्रहसे ग्रसित पुरुषके समजावने मे पंडित विचारा क्या करे जैसे काले पत्थर के टुक मे कोमलता के लिये मेघ समर्थ नहीं होता हैं, मेघके बरसनेसे वह मगसैल पत्थरका टुकडा गीला भी नही होता वैसे हठी मनुष्यमे पंडिताई कुछ काम नही देती है (४३) प्राय अच्छे मार्ग का उपदेश संप्रति कोपके वास्ते होता है, जैसे नकटेको साफ आइनेका देखावना (४४) जो पापी शक्त होके अर्थात् देनेलायक होंके देखके चैत्य के कृत्योंकी अथवा यतीके कृत्योंकी उपेक्षा करते हैं अर्थात् उनके कार्य मे सहायता नही करते हैं वह मिथ्यादृष्टी और जिन भक्ति से रहित होते हैं (४५) अरनी जो जिनेंद्र भर साधुका जक्त है, देनेलायक है वह जैसेंतैसें उपदेश दिये बिनाभी