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श्री विपाक सूत्र -
[प्रथम अध्याय
व्याकरण नाम का दशवां अंग दश अध्ययनो में विभक्त है. जिनमे प्रथम के पांच अध्ययनों में पांच अाश्रवों का वर्णन है और अन्त के पांच अध्ययनों में पांच सम्बरों का निरूपण किया गया है. तथा
नहीं कर सकी मैंने कभी किसी से हार नहीं मानी किंतु आज मैं आपके अपूर्व विद्यावल से पराजित हो गया हूँ और अपनी विद्या शक्ति को आप के सन्मुख हतप्रभ पारहा हूँ । मैं आप का अपराधी होने के नाते दण्डनीय होने पर भी कुछ दान चाहता हूँ वह है मात्र श्राप की अपूर्व विद्या का दान । मुझ पर अनुग्रह की जए और अपना विद्यार्थी बनाइए एवं विद्यादान दी जए
___कुमार प्रभव को देखते ही सब स्थिति समझ गये और उससे कहने लगे---भाई ! में तो स्वयं विद्यार्थी बनने जारहा हूँ । सूर्योदय होते ही गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पास माधुता ग्रहण करना चाह रहा हूँ । संयमी बन कर जीवन व्यतीत करूगा. संसारी जीवन से मुझे धृणा है।
प्रभव के पांव तले से ज़मीन निकल गई, वह हैरान था, अप्सराओं को मात कर देने वाली ये सुकुमारिये त्याग दी जायेंगी ? हंत ! कितना कठिन काम है । इन पदाथां के लिये तो मनुष्य सर धुनता है, लोक-लाज, आत्मसम्मान जैसी दिव्य आत्म-विभूति को लुटाकर मुंह काला कर लेता है और मानव होकर पशुत्रों से भी अधम जीवन यापन करने के लिये तैयार हो जाता है । पर यह युवक बड़ा निराला है जो स्वर्ग-तुल्य देवियों को भी त्याग रहा है। वाह-वाह जीवन तो यह है य द मत्य कहूं तो त्याग इसी का नाम है, त्याग ही नहीं यह तो त्याग की भी चरम सीमा है ।
एक मैं भी हूँ, सारा जीवन घोर पाप करते करते व्यतीत हो रहा है सर पर भीपण पापों का भार लदा पड़ा है, न जाने कहां कहां जन्म मरण के भयंकर दुःखों से पाला पड़ेगा और कहां कहां भीपण यातनायें सहन करनी होगी । अहह ! कितना पामर जीवन है मेरा । प्रभव की विचार-धारा बदलने लगी।
कुमार के अनुपम श्रादर्श त्याग ने प्रभव के नेत्र खोल दिये । उसकी अंतज्योति चमक उठी । दानवता का अड्डा उठने लगा । बुराई का दैत्य हृदय से भाग निकला। वह दानव से मानव होगया-लोहे से सोना बन गया जिस अपूर्व तत्त्व पर कभी विचार भी नहीं किया था उसका सोत बह निकला । अाग के परमाणु नष्ट होने पर जल जैसे शांत हो जाता है अपने स्वभाव को पा लेता है । वैसे ही दुर्भावनायों की प्राग शांत होते ही प्रभव शांत होगया और अपने आप को पहचा ने लगा।
प्रभव सोचने लगा----इतना कोमल शरीरी युवक जब साधक बन सकता है अात्ममाधना के कष्ट झेल सकता है तो क्या बड़े बड़े योद्धा का मुह मोड़ने वाला मेरा जीवन साधना नहीं कर सकेगा
और उसके कष्ट नहीं झेल सकेगा ? क्यों नहीं ! मैं भी तो मनष्य हूँ, इन्हीं का सजातीय हूँ, जो ये कर सकते हैं. वह मैं भी कर सकता हूँ। यह सोच कर प्रभव बोला ----सम्माननीय युवक ! आप के न्यागी जीवन ने मुझ जैसे पापी को बदल दिया है और बहुत कुछ सोच समझ लेने के अनन्तर अप मैने यह निश्चय कर लिया है कि अाज से आप मेरे गुरु और मैं आपका शिष्य, जो मार्ग आप चुनोगे उसी का पथिक बनूगा. मैं ही नहीं अपने ५०० सौ साथियों को इसी मार्ग का पथिक बनाऊंगा।
___ चोर जैसे अधम प्राणी भी जिस संसर्ग से सुधर गये, तो भला कुमार की उन पाठ) अर्धाङ्गिनियों में परिवर्तन क्यों न होता ? वे भी बदली, काफी वाद-विवाद के अनतंर इन्दा ने भी । पति के निश्चित और स्वीकृत पय पर चलने को स्वकृति दे दी और वे दीक्षित होने के लिये तैयार हो गई ।
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