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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उपसंहार हिन्दी भाषा- टीका सहित । [७०६ श्री विपाकश्रत के १-दुःखविपाक ओर सुखविपाक ये दो तस्कन्ध हैं । दुःखविपाक-जिस में दुष्ट कर्मों का दुःखरूप विपाक - परिणाम कथाओं के रूप में वर्णित हो वह दुःखविपाक है । सुखविपाक-जिस में शुभ कर्मों का सुखरूप विपाक-फल का विशिष्ट व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों से बोध कराया जावे उसे सुखविपाक कहते हैं । दुःखविपाक के और सुखविपाक के दस २ अध्ययन हैं । इस प्रकार कुल. बीस अध्ययनों में श्रुतविपाक नाम के ग्यारहवें अंग का संकलन हुअा है । विपाकसूत्र के पूर्वोक्त २० अध्ययनों के अध्ययनक्रम का भी सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट उल्लेख कर दिया है। सूत्रकार का कहना है कि विपाकसूत्रगत दुःखविपाक के दस अध्ययन दस दिनों में बांचे जाते हैं और सुखविपाक के दस अध्ययन भी दुःखविपाक की भाँति- दस दिनों में प्रतिपादन किये जाते हैं। उपसंहार में सर्वप्रथम सूत्रकार ने तदेवता को नमस्कार किया है । यह नमस्कार अभिमतग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति पर किया जाता है और यह मंगल का सूचक तथा ग्रन्थ के निर्विघ्न पूर्ण हो जाने के कारण उत्पन्न हुए हर्षविशेष का परिचायक है। मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि सफलता, सफल व्यक्ति को अपने इष्टदेव का स्मरण अवश्य कराया करती है । उसो के. फलस्वरूप यह मङ्गलाचरण है । . श्रु तदेवतायह शब्द तीर्थंकर या गणधर महाराज का बोधक है । अर्थात् इन पदों से सूत्रकार ने अर्थरूप से जैनेन्द्र वाणी के प्रदाता तीर्थंकर महाराज तथा सूत्ररूप से जैनेन्द्रवाणी के प्रदाता गणधर महाराज का स्मरण करके अपने पुनीत श्रद्धासंभार का परिचय दिया है। -एक्कसरगा-एकसहशानि- इन पदों का अर्थ होता है-एक समान, एक जैसे । तात्पर्य यह है कि दुःखविपाक में जितने भी अध्ययन संकलित है वे सब एक समान हैं, इसी प्रकार सुखविपाक के दश अध्ययन' भी एक जैसे हैं । यहां पर समानता परिणामगामिनी है अर्थात् प्रथमश्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम दुःख और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम सुख है । इस दुःख और सुख की वणित व्यक्तियों के जीवन में समानता होने से इन को एक समान कहा गया है । अथवा वर्णित व्यक्तियों के श्राचार में अधिक समानता होने की दृष्टि से भी ये एक समान एक जैसे कहे जा सकते हैं । अथवा दस दिनों में इन दस अध्ययनों के वर्णन होने से इन को समानता सुतरां स्पष्ट हो जाती है। अथवा दु:खविपाक तथा सुखविपाक के अध्ययनों में वर्णित मृगापुत्र आदि तथा सुबाहुकुमार आदि सभी महापुरुष अन्त में परमसाध्य निवार्ण पद को प्राप्त कर लेते हैं । इस दृष्टि से भी ये सभी अध्ययन समान कहे गए हैं। विपा कश्रत के अध्ययनादि क्रम को विशेष रूप से जानने के लिये श्री प्राचारांग सूत्र क अध्ययन अपेक्षित है । यह बात-सेसं जहा आयारस्त-इन पदों से ध्वनित होती है। अत: जिज्ञासु पाठकों को श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। ... सूत्रकार ने-सेसं जहा आयारस्त-यह कह कर जो विपाकसूत्र के शेष वर्णन को आचाराङ्ग सूत्र के समान संसूचित किया है, इस से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि सूत्रकार को आचाराङ्गपूत्र की विपाकसत्र के साथ कौनसी समानता अभिमत है ? तथा आचारांग सूत्र के कौनसे वर्णन के समान विपाकसत्र का वर्णन (१) श्रुत आगम या शास्त्र को और स्कन्ध उस शास्त्र के खण्ड या विभाग को कहते हैं अर्थात् आगम या शास्त्र के खण्ड या विभाग का नाम श्र तस्कन्ध है । इस के अपर विभाग अध्ययन के नाम से अभिहित किये जाते हैं। (२) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में श्रुतदेवता एक देवी मानी जाती है जो कि श्रुत की अधिष्ठात्री के रूप में उन के यहां प्रसिद्ध हैं। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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