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श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[ दशम अध्याय
टीका - दसमस्त उक्खेवो - दशमस्योत्क्षेपः
इन पदों से सूत्रकार ने दशम अध्ययन की प्रस्तावना सूचित की है, जो कि सूत्रकार के शब्दों में- जति ग' भंते ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्त सुहविवागाणं णवमस्स अज्कयणस्स मट्ठे पराणत्ते, दसमस्त णं भंते! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्ते के श्रट्टे पराणत्त १, इस प्रकार है । इन पदों का अर्थमूलार्थ में दिया जा चुका है ।
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प्रस्तुत अध्ययन का चरित्रनायक वरदत्तकुमार है कुमार के समान ही है। जहां कहीं नाम और स्थानादि का दिया है । यह अन्तर नीचे की पंक्तियों में दिया जाता है
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सुबाहुकुमार१ - जन्मभूमि- हस्तिशीर्ष ।
२- उद्यान - पुष्पकरंडक |
३ - पक्षायंतन - कृतवनमालप्रिय । ४- - पिता - अदीनशत्रु |
५- माता - धारिणी देवी ।
६- प्रधानपत्नी पुष्पचूला ।
७ - पूर्वभव का नाम – सुमुख गाथापति ।
5- जन्मभूमि हस्तिनापुर । ६- प्रतिज्ञाभित अनगार - श्री सुदत्त ।
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वरदत्त का जीवनवृत्तान्त भी प्राय: सुबाहु - अन्तर है, उस का निर्देश सूत्रकार ने स्वयं कर
वरदत्तकुमार - १ - जन्मभूमि - साकेत ।
२-उद्यान - उत्तरकुरु । ३-- यज्ञायतन - पाशामृग । ४ - पिता - मित्रनन्दी | ५- माता - श्रीकान्तादेवी । ६- प्रधानपत्नी - वरसेना ।
७- पूर्वभव का नाम - विमलवाहन नरेश । 5- जन्मभूमि शतद्वार नगर | ६- प्रतिलामित अतगार - श्री धर्मचि
अन्तर नहीं है । दोनों ही राजकुमार थे। दोनों का
इसके अतिरिक्त दोनों की धार्मिक चर्या में कोई ऐश्वर्य समान था। दोनों में श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना के श्रवण से धर्माभिरुचि उत्पन्न हुई थी। दोनो ने प्रथम श्रावकधर्म के नियमों को ग्रहण किया और भगवान् के विहार कर जाने के अनन्तर पौधशाला में पौषधोपवास किया तथा भगवान् के पास दीक्षित होने वालों को पुण्यशाली बतलाया एवं भगवान् के पुन: पधारने पर मुनिधर्म में दीक्षित होने का संकल्प भी दोनों का समान है । तदनन्तर संयमव्रत का पालन करते हुए मनुष्य भव से देवलोक और देवलोक से मनुष्यभव, इस प्रकार समान रूप से गमनागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर और वहां पर चारित्र की सम्यग आराधना से कर्मरहित हो कर मोक्ष गमन भो दोनों का समान ही होगा। ऐसी परिस्थिति में दूसरे अध्ययन से ले कर दसवें अध्ययन के अर्थ को यदि प्रथम अध्ययन के अर्थ का संक्षेप कह दिया जाये तो कुछ अनुचित न होगा । दूसरे शब्दों में कहें तो इन अध्ययन में प्रथम अध्ययन के अर्थ को ही प्रकारान्तर या नामान्तर से अनेक बार दोहराया गया है, ताकि मुमुक्षु प्राणी को दानधम और चारित्रधर्म में विशेष अभिरुचि उत्पन्न हो तथा वह उन का सम्यगुरूप से आचरण करता हुआ अपने ध्येय को प्राप्त कर सके J
प्रश्न - सेसं जहा सुबाहुस्स — इतने कथन से वरदत्त के अवशिष्ट जीवनवृत्तान्त का बोध हो सकता था, फिर आगे सूत्रकार ने जो - चिन्ता जाव पव्वज्जा आदि पद दिये है, इन का क्या प्रयोजन ? अर्थात् इनके देने में क्या तात्पर्य रहा हुआ है ?
उत्तर --- सेसं - इत्यादि पदों से काम तो चल सकता था, पर सूत्रकार द्वारा - जहा- यथा - शब्द से
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