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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[द्वितीय अध्याय
भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना । शेष वर्णन सुबाहुकुमार के सदृश ही जान लेना चाहिए । यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर चारित्र पाल कर सिद्ध होगा, मुक्त होगा, निर्वाण पद को प्राप्त होगा और सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये।
॥ द्वितीय अध्ययन सम्पूर्ण ।। टीका-राजगृह नगरी के गुणशिलक नामक उद्यान में आर्य सधर्मा स्वामी अपने शिष्यपरिवार के साथ पधारे हुए हैं। उन के प्रधान शिष्य का नाम जम्बू अनगार था । जम्बू मुनि जी घोर तपस्वी, परममेधावी, परम संयमी, विनीत, साधुओं में विशिष्ट प्रतिभा के धनी और परमविवेकी मुनिराज थे । आप प्राय: आर्य सधर्मा स्वामी के ही चरणों में अधिक निवास किया करते थे श्राप का अधिक समय शास्त्रस्वाध्याय में ही व्यतीत हुआ करता था । अभी आप सुखविपाक के सुबाहु नामक प्रथम अध्ययन का मनन करके उठे हैं। अब आप का मन सुखविपाक के द्वितीय अध्ययन के अर्थ को सुनने के लिये उत्कंठित हो रहा है।
. आगे बढ़ने वाले को आगे ही बढ़ना पसन्द होता है । उसे उदासीन होना नहीं आता । उस की प्रकृति ही उसे प्रगति के लिये बाध्य करती रहती है ! श्री जम्बू मुनि भी इसी तरह प्रयत्नशील हुए और आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर बोले-भदन्त ! आप श्री के अनुग्रह से मैंने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का अर्थ सुन लिया है और उस का यथाशक्ति चिन्तन तथा मनन भी कर लिया है । अब आप उस के दूसरे अध्ययन के अर्थ का श्रवण कराने की भी कृपा करें? मुझे उस का अर्थ सुनने की भी बहुत उत्सकता हो रही है । इसी भाव को सत्रकार ने -वितियस्त उक्खेवो-इस संक्षिप्त वाक्य में गर्भित कर दिया है । . .
-उक्खेव- उत्क्षेप प्रस्तावना का नाम है। प्रस्तुत सुखविपाकगत द्वितीय अध्ययन का प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है
-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पएणते, वितियस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के पट्टे परणतं । अर्थात् -- यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोत) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?
जम्बू स्वामी की उक्त प्रार्थना पर दूसरे अध्ययन के अर्थ का प्रतिपादन करते हुए आर्य सुधर्मा स्वामी बोले कि हे जंबू ! ऋषभपुर नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। उस के ईशानकोण में स्तूपकरंडक नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस में धन्य नाम के यक्ष का एक विशाल मन्दिर था। उस नगर के शासकनृपति का नाम धनावह था । उस की सरस्वती देवी नाम की रानी थी किसी समय शयनभवन में सुखशय्या पर सोई हुई महारानी सरस्वती ने स्वप्न में एक सिंह को देखा जो कि आकाश से उतर कर उस के मुख में प्रवेश कर गया। वह तुरन्त जागी और उसने अपने पति के पास आ कर अपने स्वप्न को कह सुनाया। स्वप्न को सुन कर महाराज धनावह ने कहा कि इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे एक सुयोग्य पुत्र होगा । महारानी ने महाराज के मंगलवचन को बड़े सम्मान से सुना और नमस्कार कर के वह अपने शय्यास्थान पर जा कर अवशिष्ट रात्रि को कोई अनिष्टोत्पादक स्वप्न न पा जाये इस विचार से धर्मजागरण में ही व्यतीत करने लगी।
समय आने पर महारानी सरस्वती ने एक रूप गुण सम्पन्न बालक को जन्म दिया। माता पिता ने उस का नाम भद्रनन्दी रक्खा । योग्य लालन पालन से शुक्रपक्षीय शशिकला की भांति वृद्धि को प्राप्त करता हुआ वह शिशुभाव को त्याग युवावस्था को प्राप्त हुआ । इस के मध्य में उस ने सुयोग्य विद्वानों की देख
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