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६७६]
श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय अतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
-आउखएणं ति-श्रायुष्कर्मद्रव्यनिर्जरणेण। भवक्खएणं त्ति-देवगतिनिबंधनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरणेण । ठितिक वएणं त्ति -आयुष्कर्मादिकर्मस्थितिविगमेन । अर्थात् अायु शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों (परमाणुविशेषों) का ग्रहण होता है। दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय ओयुक्षय है । भव शब्द से देवगति को प्राप्त करने में कारणभूत नामकर्म की पुण्यात्मक देवगति नामक प्रकृति के कर्मदलिकों का ग्रहण है, अर्थात् देवगति को प्राप्त करने में पुण्यरूप नामकर्म की देवगति प्रकृति कारण होती है । उस प्रकृति के कर्मदलिकों का नाश भवनाश कहलाता है । स्थिति शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों की अवस्थानमर्यादा का ग्रहण है । अर्थात् अायुष्कम के दलिक जितने समय तक श्रात्मप्रदेशों से संबन्धित रहते हैं उस काल का स्थिति शब्द से ग्रहण किया जाता है । उस काल (स्थिति) का नाश स्थितिनाश कहा जाता है । यही इन तीनों में भेद है।
-अणंतरं-कोई जीव पुरातन दुष्ट कर्मों के प्रभाव से नरक में जा उत्पन्न हुआ, वहां की दुःखयातनाओं को भोग कर तियञ्च योनि में उत्पन्न हुआ, वहां की स्थिति को पूरी कर फिर मनुष्यगति में पाया, उस जीव का मनुष्यभव को धारण करना सान्तर-अन्तरसहित है। एक ऐसा जीव है जो नरक से निकल
सीधा मानव शरीर को धारण कर लेता है, उसका मानव बनना अनन्तर-अन्तररहित कहलाता है। सुबाहुकुमार की देवलोक से मनुष्यभवगत अनन्तरता को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने 'अन्तरं" यह पद दिया है, जो कि उपयुक्त ही है।
भगवतीसूत्र में लिखा है कि ज्ञानाराधना, दशनाराधना' (दर्शन - सम्यक्त्व की आराधना) और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित होकर प्राचार का पालन करने वाला व्यक्ति कम से कम तीन भव करता है, अधिक से अधिक १५ भव-जन्म धारण करता है । १५ भवों के अनन्तर वह अवश्य निष्कम-कर्मरहित हो जाएगा। सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर डालेगा। ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है । इस सिद्धान्तसम्मत वचन से यह सिद्ध हो जाता है कि सुबाहुकमार ने सुमुख गायापति के भव में एक सुदत्त नामक अनगार को दान देकर जघन्य ज्ञानाराधना तथा दर्शनाराधना का सम्पादन किया, उसी के फलस्वरूप वह पन्द्रहवें भव में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाएगा। यह उस का अन्तिम भव है । इस के अनन्तर यह जन्म धारण नहीं करेगा।
देवलोकों का संख्याबद्ध वर्णन पहले किया जा चुका है। सर्वार्थसिद्ध से च्युत होकर सुबाहुकुमार का महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्धगति को प्राप्त होना, यह महाविदेह क्षेत्र की विशिष्टता सूचित करता है । महाविदेह कर्मभूमियों का क्षेत्र हैं । इस में चौथे आरे जैसा अवस्थित काल है । महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सुबाहुकुमार ने क्या किया, जिस से कि वह सर्व कर्मों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ ? इस सम्बन्ध में कुछ भी न कहते हुए सूत्रकार ने इतना ही लिख दिया है कि-जहा दिढपतिराणे-अथात् इस के आगे का उस का सारा जीवनवृत्तान्त दृढ़प्रतिज्ञ की तरह जान लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेने के बाद सुबाहुकुमार ने वही कुछ किया जो कुछ श्री दृढ़ प्रतिज्ञ ने किया था । इस से दृढ़प्रतिज्ञ के वृत्तान्त की जिज्ञासा स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। दृढ़प्रतिज्ञ का सविस्तर वर्णन तो औपपातिक सूत्र में किया गया है। उस का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
(१) आराधना-निरतिचारतपानुपालना । (वृत्तिकार:)
(२) जहन्निए णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहि सिझति जाव अंतं करेति ? गायमा ! अत्थेगतिए तच्चणं भवग्गहेणं सिझइ जाव अंतं करेइ । सत्तभवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ । एवं दसणाराहणं पि एवं चरित्ताराहणं पि । (भग० श०६, उ० १, सू० ३११)।
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