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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[ प्रथम अध्याय
का उल्लेख क्यों किया गया। जब कि उस से ही काम चल सकता था, कारण कि मासिक संलेखना और साठ भक्तों का त्याग – दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं ।
उत्तर-शास्त्र का कोई भी वचन व्यर्थ नहीं होता, केवल समझने की त्रुटि होती है । प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या विभिन्न होती है । तब जिस ऋतु में जिस मास के २९ दिन होते हैं, उस मास के ग्रहण करने की सूचना देने के लिये सूत्रकार ने-मासियार संले दणाए-ये पद देकर भी-सढि भक्ताईये पद दे दिये हैं जोकि उचित ही हैं। क्योंकि २९ दिनों के व्रतों में ही ६० भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं । -आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचितप्रतिक्रान्तः- श्रात्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के
की आज्ञानुसार उन दोषों से पृथक होने के लिये प्रायश्चित्त करने वाले को श्रालाचितप्रतिक्रान्त कहते हैं । इस पद का सविस्तर विवेचन पृष्ठ ९८ पर किया जा
स पद का सविस्तर विवेचन पृष्ठ ९८ पर किया जा चका है । समाधि-इस पद का निक्षेप - विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से चार प्रकार का होता है। १-किसी का नाम समाधि रख दिया जाय तो वह नामसमाधि है। २-समाधि की प्राकृति-आकार को स्थापना समाधि कहते हैं। ३-मनोज्ञ शब्दादि पञ्चविध विषयो
दि इन्द्रियों की जो तष्टि होती है. उस का नाम व्यसमाधि है। अथवा-दध और शक्कर के मिलान से रस की जो पुष्टि होती है उसे.अथवा-किसी द्रव्य के सेवन से जो शान्ति उपलब्ध हो कहते हैं । अथवा- यदि तुला के ऊपर किसी वस्तु को चढ़ाने से दोनों भाग सम हो जावें उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं । जिस जीव को जिस क्षेत्र में रहने से शान्ति उपलब्ध होती है, वह क्षेत्र की प्रधानता के कारण क्षेत्रसमाधि कहलाती है। जिस जीव को जिस काल में शान्ति मिलती है, वह शान्ति उस के लिये कालसमाधि है । जैसे - शरद् ऋतु में गौ को, रात्रि में उल्लू को और दिन में काक को शान्ति प्राप्त होती है, वह शान्तिकाल की प्रधानता के कारण काल समाधि कही जाती है । ४-भावसमाधि-भावसमाधि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन भेदों से चार प्रकार की कही गई है । १-जिस गुण-शक्ति के विकास से तत्त्व-सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिस से छोड़ने और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, वह दर्शन भावसमाधि है । २-नय और प्रमाण से होने वाला जीवादि पदार्थों का यथार्थ बोध ज्ञानभावसमाधि है । ३ - सम्यग् ज्ञान पूर्वक काषायिक भाव राग, द्वेष और योग की निवृत्ति होकर जो स्वरूपरमण होता है वही चारित्र भावसमाधि है। ४- ग्लानिरहित किया गया तथा पूर्वबद्ध कर्मों का नाश करने वाला तप नामक अनुष्ठानविशेष तपभावसमाधि है। सारांश यह है कि जिस के द्वारा आत्मा सम्यक्तया मोक्षमागे में अवस्थित किया जाय वह अनुष्ठान समाधि' कहलाता है। प्रकृत में इसी समाधि का ग्रहण अभिमत है । समाधि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति समाधिप्राप्त कहलाता है ।
कालमास-का अर्थ है -- समय आने पर । इस का प्रयोग सूत्रकार ने अकाल मृत्यु के परिहार के लिये किया है । इस का तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहु कुमार की अकाल मृत्यु नहीं हुई है।
कल्प-इस शब्द के अनेको अर्थ है -१ -समर्थ, २- वर्णन, ३-छेदन, ४-करण, ५
(१) सम्यगाधीयते-मोतः तन्मार्ग वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासौ धर्मः समाधिः । (श्री सूत्रकृताङ्गवृत्तौ)
(२) कल्प राब्दोऽनेकार्थाभिधायी--कचित्सामर्थ्य, यथा-वर्षाष्टप्रमाण: चरणपरिपालने कल्पः समथः इत्यर्थः । कचिद् वर्णनायाम् -यथा-अध्ययन मिदभनेन कल्पितं वर्णितमित्यर्थः । किचछेदने --यथा -के सान् कर्तर्या कल्पयति-छिनत्ति इत्यर्थ : । कचित् करणे -क्रियायाम्-यथा
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