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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित __ सुबाहकुमार अहिंसा आदि पांचों महावतों के यथाविधि पालन में सतत जागरूक रहता है । उस में किसी प्रकार का भी अतिचार-दोष न लगने पावे, इस का उसे पूरा २ ध्यान रहता है। जीवन के बहुमूल्य धन ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी वह विशेष सजग रहता है। कारण कि यह जीवन का सर्वस्व है । जिस का यह सुरक्षित है, उस का सभी कुछ सुरक्षित है । संक्षेप में कहें तो सुबाहु मुनि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्राप्त हुए संयम धन को बड़ी दृढ़ता और सावधानी से सुरक्षित किए हुए विचर रहा था। व ज्ञान से ही आत्मा अपने वास्तविक उद्देश्य को समझ सकता है और तदनन्तर उसके साधनों से उसे सिद्ध कर लेता है। शास्त्रों में ज्ञान की बड़ी महिमा गाई गई हैं । श्री भगवती सूत्र में लिखा है कि परलोक में साथ जाने वाला ज्ञान ही है, चारित्र तो इसी लोक में रह जाता है । गीता में लिखा है कि संसार में ज्ञान के समान पवित्र और उस से ऊची कोई वस्तु नहीं है । 'नहि ज्ञानेन सदशं पवित्रमिह विद्यते"। अत: छः महीने लगातार श्रम करने पर भी यदि एक पद का अभ्यास हो तब भी उस का अभ्यास नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि ज्ञान का अभ्यास करते २ अन्तर के पट खुल जाए', केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाए, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। __ स्वनामधन्य महामहिम श्री सबाहुकुमार जी महाराज ज्ञानाराधना की उपयोगिता को एवं अभिमत साध्यता को बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसी लिये जहां उन्हों ने साधुजीवनचर्या के लिए पूरी २ सावधानी से काम लिया वहां ज्ञानाराधना भी पूरी शक्ति लगा कर की। पूज्य तथारूप स्थविरों के चरणों में रह कर उन्होंने सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया , उन्हें याद किया, उन का भाव समझा और तदनुसार अपना साधुजीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। एकादश अंग-जैनवाङमय अङ्ग, उपांग , मूल और छेद इन चार भागों में विभक्त है । उन में ११ अङ्ग, १२ उपांग, ४ मूल और ४ छेद हैं । इन की कुल संख्या ३१ होती है । इन में आवश्यक सूत्र के संकलन से कुल संख्या ३२ हो जाती है । ग्यारह अंगों के नाम निम्नोक्त हैं १-पाचारांग-इस में श्रमणों-निग्रन्थों के आहार-विहार तथा नियमोपनियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। २-सूत्रकृतांग-इस में जीव, अजीव आदि पदार्थों का बोध कराया गया है । इस के अतिरिक्त ३६३ एकान्त क्रियावादी आदि के मतों का उपपादन और निराकरण करके जैनेन्द्र प्रवचन को प्रामाणिक सिद्ध किया गया है । वर्णन बड़ा ही हृदयहारी है। ३ - स्थानांग-इस में जीव, अजीव आदि पदार्थों का तथा अनेकानेकों जीवनोपयोगी उपदेशों का विशद वर्णन मिलता है और यह दश भागों में विभक्त किया गया है। यहां विभाग शब्द के स्थान पर 'स्थान" शब्द का व्यहार मिलता है। ४- समवायांग-इस सूत्र में भी जीव, अजीव आदि पदार्थों का स्वरूप संख्यात और असंख्यात विभागपूर्वक वर्णित है। ५- 'भगवती-इस में जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त आदि विषयों से सम्बन्ध रखने वाले ३६ हजार प्रश्न और उनके उत्तर वणित हैं । ६-ज्ञाताधर्मकथांग-इस में अनेक प्रकार की बोधप्रद धार्मिक कथायें संगृहीत की गई हैं। ७ -- उपासकदशांग-इस में श्री श्रानन्द श्रादि दश श्रावकों के धार्मिक जीवन का वर्णन करते (१) इसे विवाहपएणत्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति भी कहते हैं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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