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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
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- ६५६ ]
उस का मेरे हृदयपट पर जो पावन चित्र अंकित हुआ है उसे मैं ही देख सकता हुँ, दूसरे को दिखलाना मेरे
लिये शक्य है ?
के
पुत्र इन वचनों का सुन कर महाराना धारणा बाली - पुत्र ! तू बड़ा भ्राग्यशाली है ? जो कि तूने श्रमण भगवान् महावीर की वाणी को सुना और उस में तेरी अभिरूचि उत्पन्न हुई। इस प्रकार के धर्माचार्यो से धर्म का श्रवण करना और उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना किसी भाग्यशाली का ही काम हो सकता है। भाग्यहीन व्यक्ति को ऐसा पुनीत अवसर प्राप्त नहीं होता । इस लिये पुत्र ! तू सचमुच ही भाग्यशाली है ।
प्रथम अध्याय
माँ ! मेरी इच्छा है कि मैं भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर दीक्षा ग्रहण कर लूं । मेघकुमार " बड़ी नम्रता से माता के सामने अपना मनोभाव व्यक्त किया और स्वीकृति मांगी ।
पुत्र
अपने प्रिय पुत्र मेघकुमार की यह बात सुनकर महारानी अवाक् सी रह गई । उसे क्या खबर थी कि उस के here at श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना ने अपने वैराग्यरंग से सर्वथा रंजित कर दिया है और अब उस पर मोह के रंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता. उसे मेघकमार' के उक्त विचार से पुत्रवियोगजन्य बहुत दुःख हुआ ।
माता पिता अपनी विवाह के योग्य पुत्री का विवाह अपनी इच्छा से करते हैं, तब भी विदाई के समय उन्हें मातृपितृस्नेह व्यथित कर ही 'देता है । इसी प्रकार मेत्रकुमार की धर्मपरायणा माता धारिणी देवी, दीक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानती हुई भी तथा साधुजनों की संगति और संयम को आदर्श रूप समझती हुई भी मेघकुमार के मुख से दीक्षित होने का विचार सुन उस के हृदय को पुत्र की ममता ने हर प्रकार से व्यथित कर दिया । वह बेसुध हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ी । जब दास दासियों के उपचार से वह कुछ सचेत हुई तो .स्नेहपूर्ण हृदय से मेघकुमार को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोली
For Private And Personal
पुत्र ! तू ने यह क्या कहा ? मैं तो तुम्हारा मुख देख २ कर ही जी रही हूँ। मेरे स्नेह का एक मात्र केन्द्र तो तू ही है ।, मैंने तो तुम्हें उस रत्न से भी अधिक संभाल कर रखा है, जिसे सुरक्षित रखने के लिये एक सुदृढ़ और सुन्दर डिब्बे की जरूरत होती है ? मैं तो तुम्हारे आते का मुख और जाते की पीठ देखने के लिये ही खड़ी रहती हूं । ऐसी दशा में तुम्हारे दीक्षित हो जाने पर मेरी जो अवस्था होगी उस का भी तू पुत्र ! गम्भीरता से विचार कर ? माता का भी पुत्र पर कोई अधिकार होता है । इसलिये बेटा ! अधिक नहीं तो मेरे जीते तक तो तू इस दीक्षा के विचार को अपने हृदय से निकाल दे। अभी तेरा भर यौवन है, इस उपयुक्त सामग्री भी घर में विद्यमान है, यह सारा वैभव तेरे ही लिये है, फिर तू इस का यथारुचि उपभोग न कर के दीक्षा लेने की क्यों ठान रहा है ? छोड़ इन विचारों को, तू अभी बच्चा है, संयम के पालने में कितनी कठिनाइयें झेलनी पड़ती हैं, इस का तुझ को अनुभव नहीं है। संयमव्रत का ग्रहण करना कोई साधारण बात नहीं है । इस के लिये बड़े दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है । तेरा कोमल शरीर, सुकुमार अवस्था और देवदुलभ राज्यवैभव की संप्राप्ति आादि के साथ दीक्षा जैसे कठोरत की तुलना करते हुए मुझे तो तू उस के योग्य प्रतीत नहीं होता। इस पर भी यदि तेरा दीक्षा के लिये ही विशेष आग्रह है तो मेरे मरने के बाद दीक्षा ले लेना । इस प्रकार माता की और महाराज श्रेणिक के आ जाने पर उन की ओर से कही गईं इसी प्रकार की स्नेहपूर्ण ममताभरी बातों को सुन कर माता पिता को सम्बोधित करते हुए मेघकुमार बोलें.
आप की पुनीत गोद में बैठ कर मैंने तो यह सीखा है कि जिस काम में अपना और संसार का