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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
७ -प्रश्न इस ने किस शील का पालन किया था ? उत्तर. पांचों शीलों का । ८-प्रश्न इस ने किस तथारूप मुनि के वचन सने थे ? उत्तर-तपस्विराज श्री सदत्त मुनि जी महाराज के ।
सुबाहुकुमार के पूर्वभवसम्बन्धी जीवन वृत्तान्त में अधिकतया सपात्रदान का महत्त्व वर्णित हुआ है, जोकि प्रत्येक मुमुक्षु जीव के लिये आदरणीय तथा आचरणीय है। ____ शास्त्रों में चार प्रकार के मेघ बतलाये गये हैं । जैसेकि -१-क्षेत्र में बरसने वाले, २-अक्षेत्र में बरसने वाले, ३-क्षेत्र अक्षेत्र दोनों में बरसने वाले, ४ –क्षेत्र अक्षेत्र दोनों में न बरसने वाले। इसी प्रकार चार तरह के दाता होते हैं । जैसे कि - "-क्षेत्र-सपात्र में देने वाले, २-अक्षेत्र-कुपात्र में देने वाले, ३-क्षेत्र अक्षेत्रसुपात्र तथा कुरात्र दोनों में देने वाले. ४ - क्षेत्र अक्षेत्र -सुपात्र, कुपात्र दोनों में न देने वाले। इस में तीसरी श्रेणी के दाता बड़े उदार होते हैं । वे सुपात्र को तो देते ही हैं परन्तु प्रवचनप्रभावना आदि के निमित्त कुपात्र को भी दान देते हैं । कुपात्र कम नर्जरा की दृष्टि से चाहे दान के अयोग्य होता है परन्तु अनुकम्पा - करुणा बुद्धि से वह भी योग्य होता है । सभी दानों में सुपात्रदान प्रधान है, यह महती कर्मनिरा का हेतु होता है, तथा दाता को जन्ममरणपरम्परा के भयंकर रोग से विमुक्त करने वाली रामबाण औषधि है । इस के सेवन से साधक आत्मा एक न एक दिन जन्म और मृत्यु के बन्धन से सदा के लिये छूट जाता है । इस के अतिरिक्त घर में आये हुए मुनिराज का अभ्युत्थानादि से किस प्रकार स्वागत करना चाहिए ? और उन को
आहार देते समय कैसी भावना को हृदय में स्थान देना चाहिए ? एवं आहार दे चुकने के बाद मन में किस हद तक सन्तोष प्रकट करना चाहिए ? इत्यादि गृहस्थोचित सद्व्यवहार की शिक्षा के लिये समुख गाथापति के जीवनवृत्तान्त का अध्ययन पर्याप्त है।
हष्ट तुष्ट - शब्द के १-कृष्ट - मुनि के दर्शन से हर्षित तथा तुष्ट-सन्तोष को प्राप्त अर्थात् मैं धन्य हूं कि आज मुझे सुपात्रदान का सुअवसर प्राप्त होगा, इस विचार से सन्तुष्ट । २ - अत्यन्त प्रमोद से यक्त, ऐसे अनेकों अर्थ पाए जाते हैं। सिंहासन के नीचे पैर रखने के एक आसनविशेष की पादपीठ संज्ञा होती है। पादुका खड़ाओं का ही दूसरा नाम है।
-उत्त०-यहां के बिन्दु से - उत्तरासंग करेइ करित्ता-इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । उत्तरासंग का अर्थ होता है - एक अस्यूत वस्त्र के द्वारा मुख को आच्छादित करना।
-सत्तट्ठपयाई-सप्ताष्टपदानि - इस का सामान्य अर्थ-सात आठ पांव - यह होता है । यहां पर मात्र सात या आठ का ग्रहण न करके सूत्रकार ने जो सात और आठ इन दोनों का एक साथ ग्रहण किया है, इस में एक रहस्य है, वह यह है कि जब आदमी दोनों पांव जोड़ कर खड़ा होता है, तब चलने पर एक पांव आगे होगा और दूसरा पांव पीछे । चलते २ जब अगले पांव से सात कदम पूरे हो जाएंगे तब उसी दशा में स्थित रहने से एक कदम आगे और एक पीछे, ऐसी स्थिति होगी, और तदनन्तर पिछले पांव को उठ
साथ मिलाने से खड़े होने की स्थिति सम्पन्न होती है। ऐसे क्रम में जो पांव आगे था उस से तो सात कदम होते हैं और जिस समय पिछला पांव अगले पांव के साथ मिलाया जाता है उस समय आठ क़दम होते हैं । तात्पर्य यह है कि एक पांव से सात कदम रहते हैं और दूसरे से आठ कदम होते हैं । इसी भाव को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने केवल सात या पाठ का उल्लेख न कर के-सत्तकृपयाईऐसा उल्लेख किया है, जो कि समुचित ही है।
-तिक्खुत्तो आया०- यहां का बिन्दु -हिणं पयाहिणं करेइ करित्ता - इन पदों का संसूचक है । इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । प्रस्तुत में पढ़े गये -तिक्खुत्तो-इत्यादि पद वन्दना
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