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६३०]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रतस्कन्ध
अध्याय
सिद्ध होता है कि उस ने मिथ्यात्व की दशा में दान दिया, दूसरे शब्दों में वह मिथ्यात्वी था या होना चाहिये।
उत्तर -श्री सुमुख गृहपति को मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि कहना भूल करना है । संयमशील मुनिजनों में इस की जैसी अनन्य श्रद्धा थी, वैसी तो आजकल के उत्कृष्ट श्रावकों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती । इस प्रकार की प्रान्तरिक भक्ति सम्यग्दृष्टि में ही हो सकती है और इस के अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के जो २ चिन्ह होते हैं, उन से वह सर्वथा परिपूर्ण था ।
प्रश्न -भी भगवती सूत्र शतक ३० उद्देश्य १ में लिखा है कि सम्यगदृष्टि मनुष्य तथा पशु वैमानिक देवगति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति का बन्ध नहीं करता, परन्तु सुमुख गृहपति ने सम्यगदृष्टि होते हुए भी मनुष्य आयु का बन्ध किया, देवगति का नहीं । इस से प्रमाणित होता है कि वह सम्यग्दृष्टि नहीं था । अगर सम्यगदृष्टि होता तो वैमानिक देव बनता, मनुष्य नहीं ।
उत्तर-श्री भगवतीसूत्र में जो कुछ लिखा है, उस से सुमुख गृहपति का सम्यगदृष्टि होना निषिद्ध नहीं हो सकता । वहां लिखा है कि जो मनुष्य और तियच विशिष्ट क्रियावादी ( सम्यगदृष्टि । होते हैं और निरतिचार व्रतों का पालन करते हैं वे ही वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं। इस से स्पष्ट विदित होता है कि भगवती सूत्र का उक्त कथन सामान्य सम्यग्दृष्टि के लिये नहीं किन्तु विशेष के लिये है।
. प्रश्न-श्री भगवतीसूत्र में इस विषय का जो पाठ है उस में मात्र " क्रियावादी" पद है. विशिष्ट क्रियावादी नहीं । ऐसी दशा में उस का विशिष्ट क्रियावादी अर्थ मानने के लिये कौन सा शास्त्रीय आधार है !
उत्तर-यहां पर विशिष्ट क्रियावादी का ही ग्रहण करना उचित है । इस के लिये 'श्री दशाश्रतस्कन्ध का उल्लेख प्रमाण है । वहां लिखा है कि महारंभी और महापरिग्रही सम्यग्दृष्टि नरक में जाता है । यदि श्री भगवती सूत्रगत क्रियावादी पद से विशिष्ट सम्यगदृष्टि अर्थ गृहीत न हो तो उस का श्री दशाश्रुतस्कन्ध के साथ विरोध होता है । तात्पर्य यह है कि यदि सामान्यरूप से सभी सम्यगदृष्टि वैमानिक की श्रायु का बन्ध करते है - यह अाशय श्री भगवतीसूत्र के उल्लेख का हो तो भी दशाश्रुतस्कन्धगत श्रारम्भ और परिग्रह की विशेषता रखने वाले सम्यग्दृष्टि को नरकमाप्ति का उल्लेख विरुद्ध हो जाता है जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं है और यदि क्रियवादी से विशिष्ट क्रियावादी अर्थ ग्रहण करें तो विरोध नहीं रहता । कारण कि जो विशिष्ट सम्यगढष्टि है उसी के लिये वैमानिक आयु के बन्ध का निर्देश है न कि सभी के लिये । दूसरे शब्दों में कहें तोश्री भगवतीसूत्र में जिस सम्यगदृष्टि के लिये वैमानिक आयु के बन्ध का कथन है, वह सामान्य क्रियावादी के लिए नहीं अपितु विशिष्ट क्रियावादी-सम्यगदृष्टि के लिए है, और जो श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र में महारम्भी तथा महापरिग्रही के लिये नरकप्राप्ति का उल्लेख है वह सामान्य सम्यगदृष्टि के लिये है, विशिष्ट सम्यगदृष्टि के लिए नहीं। उस में तो महारम्भ और महापरिग्रह का सम्भव ही नहीं होता
प्रश्न-क्या श्री दशाश्रु तस्कन्धसूत्र के अतिरिक्त श्री भगवतीसूत्र में भी इस विषय का समर्थक कोई उल्लेख है।
उत्तर-हां है । भगवतीसूत्र में ही (श० १, उ० २) लिखा है कि विराधक श्रावक की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में होती है । श्रावक के विराधक होने पर भी उसका सम्यक व सुरक्षित रहता है अर्थात् वह क्रियावादी होने पर भी वैमानिक देवों में उत्पन्न न हो कर भवनवासी तथा ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होता है । इस से भी स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि श्री भगवती त्रगत उक्त क्रियावादी पद से
(१) देखिये-श्रीदशाभु तस्कन्ध की छठी दशा।
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