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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । . धर्माप -- सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ५०० शिष्यपरिवार के साथ पधारने वाले आचार्य श्री का धमघोष, यह गुणसम्पन्न नाम था। धर्मघोष का व्युत्पत्तिलभ्य अथ होता है -धर्म की घोषणा करने वाला। तात्पर्य यह है कि जिस के जीवन का एक मात्र उद्दश्य धर्म की घोषणा करना, धम का प्रचार करना हो, वह धमेघोष कहा जा सकता है । उक्त आचार्यश्री के जीवन में यह अर्थ अक्षरशः संघटित होता है और उन की गुणसम्पदा के सर्वथा अनुरूप है। स्थविर-स्थविर शब्द का अर्थ सामान्यरूप से वृद्ध -बूड़ा या बड़ा होता हैं । प्रकृत में इस का" - वृद्ध या बड़ा साधु -" इस अर्थ में प्रयोग हुआ है । 'आगमों में तीन प्रकार के स्थविर बतलाये गए हैं - जातिस्थविर सूत्र-श्र तस्थविर और पर्यायस्थविर । साठ वर्ष की आयु वाला जातिस्थविर श्री स्थानांग और समवायांग का पाठी-जानकार सूत्रस्थविर और बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर कहलाता है। यद्यपि धर्मघोष अनगार में इन तीनों में से कौन सी स्थविरता थी १, इस का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में नहीं और नाहिं टीका में है, तथापि सूत्रगत वर्णन से उन में उक्त तीनों ही प्रकार की स्थविरता का होना निश्चित होता है। पांच सौ शिष्य परिवार के साथ विचरने वाले महापुरुष में आयु, श्रुत और दीक्षापर्याय इन तीनों की विशिष्टता होनी ही चाहिये । इस के अतिरिक्त जैनपरम्परा के अनुसार स्थविरों को तीर्थंकरों के अनुवादक कहा जाता है। तीर्थ कर देव के अर्थरूप संभाषण को शाब्दी रचना का रूप देकर प्रचार में लाने का काम स्थविरों का होता है। गणधरों या स्थविरों को यदि तीर्थंकरों के अमात्य - प्रधानमंत्री कहा जाए तो अनुचित न होगा। जैसे, राजा के बाद दूसरे स्थान पर प्रधानमंत्री होता है, उसी प्रकार तीर्थंकरों के बाद दूसरे स्थान पर स्थविरों की गणना होती है, और जैसे राज्यसत्ता को कायम तथा प्रजा को सुखी रखने के लिये प्रधानमंत्री का अधिक उत्तरदायित्व होता है, उसी प्रकार अरिहन्तदेव के धर्म को दृढ़ करने और फैलाने का काम स्थविरों का होता है। तब तीर्थकर देव के धर्म को आचरण और उपदेश के द्वारा जो स्थिर रखने का निरन्तर उद्योग करता है, वह स्थविर है, यह अर्थ भी अनायास ही सिद्ध हो जाता है। जातिसम्पन्न-धर्मघोष स्थविर को जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न और बलसम्पन्न आदि विशेषणों से विशेषित करने का अभिप्राय उन के व्यक्तित्व को महान् सूचित करता है । जाति शब्द माता के कुल की श्रेष्ठता का बोधक है और कुल शब्द पिता के वंश की उत्तमता का बोधक होता है। धर्मघोष स्थविर को जातिसम्पन्न और कलसम्पन्न कहने से उन की मातृकलगत तथा पितृकुलगत उत्तमता को व्यक्त किया गया है। अर्थात् वे उत्तम कल और उत्तम वंश के थे, वे एक असाधारण कुल में जन्मे हुए थे। प्रश्न-एक ही नगर में एक साथ पांच सौ मुनियों को ले कर श्री धर्मघोष जी महाराज का पधारना, यह सन्देह उत्पन्न करता है कि एक साथ पधारे हुए पांच सौ मुनियों का वहां निर्वाह कैसे होता होगा? इतने मुनियों को निर्दोष भिक्षा कैसे मिलती होगी ? उत्तर-उस समय आर्यावर्त में अतिथिसत्कार की भावना बहुत व्यापक थी। अतिथिसेवा करने को लोग अपना अहोभाग्य समझते थे। भिक्षु को भिक्षा देने में प्रत्येक व्यक्ति उदारचित्त था । ऐसी परिस्थिति में हस्तिनापुर जैसे विशाल क्षेत्र में ५०० मुनियों का निर्वाह होना कुछ कठिन नहीं किन्तु नितान्त सुगम था। (१) तो थेरभूमीओ पं० त०-जाइथेरे सुत्तथेरे, परियायथेरे......वीसवासपरियारणं समणे णिग्गंथे परियायथेरे (स्थानांगसूत्र स्थान ३, उ० ३, सू० १५९) (२) श्री ज्ञातासूत्र आदि में गणधरदेवों को भी स्थविरपद से अभिब्यक्त किया गया है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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