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श्री विपाकसूत्र
[श्री शालिग्राम जी म०
पालन में और साधुओं-संतों की परिचर्या में बीतता था । अध्यापक और पास-पड़ोस के बड़े-बूढ़े लोग भी शालिग्राम को आदर्श बालक मानते थे । उन के लिए सब के हृदय में समान स्नेह था ।
__ समझदार और योग्य जान कर पिता ने शालिग्राम को धंधे में लगा लिया । धंधे में वह लग तो गये लेकिन पढ़ाई का जो चस्का पड़ गया था, नहीं छूटा । स्वाध्याय और संतों की संगति'.. अवकाश का समय वह इन्हीं कामों में लगाते । आगे चल कर ज्योतिष से उन्हें काफी दिलचस्पी हो गई थी। यह अभिरुचि शालिग्राम जी महाराज के जीवन में हमने अंत तक देखी है।
माता और पिता ने विवाह के लिए तरुण शालिग्राम पर बेहद दबाव डाला, परन्तु वह टस से मस नहीं हुए । इस विषय में उन्हें साथियों ने भी काफी-कुछ समझाया-बुझाया, लेकिन शालिग्राम जी ब्रह्मचर्य-पालन के अपने संकल्प से तिलमात्र भी नहीं डिगे।
पीछे एक अद्भुत घटना घटी ! शालिग्राम कहीं से वापस आ रहे थे। साथ में और कोई नहीं था, भाई था। रास्ते में श्मशान पड़ता था । वहां संयोग से उस समय एक चिता जल रही थी। दोनों भाई चिता के करीब से गुज़र कर आगे बढ़े.......
फिर एक अजीब-सी आवाज़ आने लगी...सू सू सू सू, फू फू फू फू...ऐसा प्रतीत हुआ कि चिता के अगारे उन दोनों का पीछा कर रहे हैं ! आगे आगे दो तरुण पथिक और उनके पीछे पीछे चिता के अनगिनित अंगारे !! आगे आगे जीवन और पीछे पीछे मृत्यु !!!
शालिग्राम इस से ज़रा भी नहीं घबराये । अपने हृदय को उन्हों ने बे-काबू नहीं होने दिया।
भाई लेकिन बुरी तरह डर गया था । उस के हाथ-पैर तो कांप ही रहे थे, कलेजा भी मुह को आ रहा था । चला नहीं जाता था उस से । स्थिति बड़ी विषम हो गई थी...
आखिर शालिग्राम जी भाई को घर उठा लाये ।
कुछ दिन बाद शालिग्राम ने अपने दूसरे भाई के मुह पर मक्खियां भिनभिनाती देखी... वह समझ गये कि अब यह भी नहीं जीएगा !
इन घटनाओं का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि शालिग्राम को अपने पार्थिव शरीर के प्रति घोर विरक्ति हो गई।
अब शीघ्र से शीघ्र साधु हो जाने का संकल्प उन्हों ने मन ही मन ले लिया । २० वर्ष की आयु थी, समूचा जीवन सामने था ।
मसें भीग रहीं थी...यह विशाल और विलक्षण संसार उन्हें अपनी ओर चुमकार रहा था; पुचकार रहा था बार बार ।।
__ सौभाग्य से उन्हें महामहिम वयोवृद्ध श्री स्वामी जयरामदास जी महाराज की शुभ स गति प्राप्त हो गई । महाराज जी ने इस रत्न को अच्छी तरह पहचान लिया । पहुंचे हुए एक सिद्ध को एक साधक मिला ।
अन्ततो गत्वा संवत् १६४६ में खरड़ (जि० अम्बाला, पंजाब) में श्री शालिग्राम जी ने जैनमुनि की दीक्षा प्राप्त की । उक्त श्री स्वामी जयराम दास जी महाराज ही आपके दीक्षागुरु हुए।
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