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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टोका सहित ।
[६०९
इष्टरूपः-इष्टस्वरूप इत्यर्थः (किसी की चाह उस के विशेष कृत्य को उपलक्षित कर के भी हो सकती है, इस इष्टता के निवारणार्थ इष्टरूप यह विशेषण दिया गया है, अर्थात् उस की आकृति ही ऐसी थी जो इष्ट प्रतीत होती थी ) इष्ट इष्टरूपो वा कारणवसादपि स्यादित्यत आह - कान्त:-करनीय, कान्तरूपः -कानीरूपः, शोभनः शोभनस्वभावश्चेत्यर्थः ( इष्टता और इष्टरूपता किसी कारणविशेष से भी हो सकती है, इस आपत्ति को दूर करने के लिए कान्त श्रादि पर दिये है, कान्त का अर्थ होता है-कमनीय -सुन्दर और कान्तरूप का अर्थ है- सुन्दर स्वभाव वाला । सुबाहुकुमार की इष्टता में उस का सुन्दर स्वभाव ही कारण था) एवंविधोऽपि कश्चित् कर्मदापात् परेशं प्रीति नोत्पादयेदित्या पाह - प्रय: -प्रमोत्पादकः, प्रियरूप:-प्रीतिकारिस्वरूपः ( सुन्दर स्वभाव होने पर भी कर्म के प्रभाव से कोई दूसरों में प्रीति उत्पन्न करने में असमर्थ रह सकता है, इस आशंका के निवारणार्थ प्रिय और प्रियरूप ये विशेषण दिये है । प्रेम का उत्पादक प्रिय और जिस का रूप प्रिय - प्रीति का उत्पादक हो उसे प्रियरूप कहते हैं। एवंविधश्च लोककढितोऽपि स्यादित्यत श्राह-मनोन:-मनसाऽन्त:संवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञ: एवं मनोज्ञरूपः ( कोई २ लोगों के व्यवहार में प्रियरूप होता है और वास्तव में नहीं होता, इस आशंका के निवारणार्थ मनोज्ञादि का प्रयोग किया गया है । आन्तरिक वृत्ति से जिस की शोभनता अनुभव में आवे. वह मनोज्ञ, उस के रूप वाला मनोजरूप कहलाता है ) एवंविधश्चैकदापि स्पादित्यत आह "मणोमेति " मनसा अम्यते गम्यते पुनः पुनःसंस्मरणतो यः स मनोमः, एवं मनोमरूपः ( किसी को मनोज्ञता तात्कालिक हो सकती है, यह ऐसा सुबाहुकमार के विषय में न समझ लिया जाये, एतदर्थ मनोम विशेषण दिया है, जिस की सुन्दरता का स्मरण पुनः पुन: - बारंबार किया जाए, वह मनोम और उस के रूप को मनोमरूप कहते हैं ) एतदेव प्रपंचयन्नाह -" सोमे ति अरोद्रः सुभगो वल्लभः, "पियइसणे" शि प्रेमजनकाकार: किमुक्तं भवति १ ' सुरूवे" ति शोभनाकार: सुस्वभावो वेति -(इस पूर्वोक्त सुन्दरता के विस्तार के लिये ही सोम इत्यादि पदों का निवेश किया गया है । रुद्रतारहित व्यक्ति सोम - सौम्य स्वभाव वाला होता है और वल्लभता वाला-इस अर्थ का सूचक सुभगशब्द है, प्रेम का जनक -उत्पादक आकार और उस आकार वाला प्रियदर्शन कहलाता है । सन्दर आकार तथा सुन्दर स्वभाव वाले को सुरूप कहते हैं ) एवंविधश्चकजनापेक्षयापि स्थादित्यत श्राह- "बहुजणस्सय वि" इत्यादि (सुबाहुकुमार की सुन्दरता, प्रियता और मनोज्ञता श्रादि गुणसंहति -गुणसमूह एक व्यक्ति की अपेक्षा भी मानी जा सकती है ?, इस के निराकरण के लिये बहजन विशेषण दिया है अर्थात् सुबाहु कुमार किसी एक व्यक्ति को ही प्रिय नहीं था किन्तु बहुत से लोगों को वह प्रिय था ) एवंविधश्च प्राकृतजनापेक्षयापि स्यादित्यत आह -" साहुजणस्त य वि" इत्यादि (अनेकों मनुष्यों की प्रियता का अर्थ प्राकृतपुरुषों - साधारण मनुष्यों तक ही सीमित हो, ऐसा भी हो सकता है। इस लिये सूत्रकार ने साधुजन विशेषण दे कर उस का भी निराकरण कर दिया है । तात्पर्य यह है कि सबाहुकुमार केवल सामान्य जनता का ही प्रियभाजन नहीं था अपितु साधुजनों को भी वह प्यारा था । साध शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं - १ - विशिष्टप्रतिभाशाली व्यक्ति, २-मुनिजन-त्यागशील या यति लोग। प्रकृत में ये दोनों ही अर्थ सुसंगत है।)
सुबाहुकुमार की उस विशिष्ट गुणसम्पदा से आकृष्ट हुर गौतम स्वामी उस के चले जाने के अनन्तर भगवान् महावीर से पूछते हैं कि भगवन् ! सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य उपार्जित किया है. जिस के फलस्वरूप इसे इस प्रकार की उदार मानवी ऋद्धि की उपलब्धि-संप्राप्ति और समुपस्थिति हुई है? गौतम स्वामी के प्रश्नों को टीकाकार के शब्दों में कहें तो- किरणा लद्धा ,केन हेतुनोपार्जिता?, किराणा
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