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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०६] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवी ऋद्धि कैसे उपलब्ध की ?, कैसे प्राप्त की है और कैसे उस के मम्मुख उपस्थित हुई? और यह पूर्वभव में कौन था ? यावत् समृद्धि जिस के सन्मुख उपस्थि हो रही है। __... टीका-भगवान के समवसरण- व्याख्यानसभा में अनेकानेक परमपूज्य साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकायें उपस्थित थीं। सुबाहुकुमार के वार्तालाप के समय भी उन में से अनेकों वहां विद्यमान होंगे । सुबाहुकुमार के सौम्य स्वभाव और आकर्षक मुद्रा को देख कर कौन जाने किस २ के हृदय में किस २ प्रकार की भावनाएं उत्पन्न हुई होगी।, उन सभी का उल्लेख यहां पर नहीं किया गया, परन्तु भगवान् के प्रधान शिष्य श्री इन्द्रभूति जो कि गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं, को वहां बैठे २ जो विचार आए उन का वर्णन यहां पर किया गया है। सुबाहुकुमार की रूपलावण्यपूर्ण भद्र और मनोहर प्राकृति तथा सौम्य स्वभाव एवं मृदु वाणी आदि को देख कर गौतम स्वामी विचारने लगे कि सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य किया है, जिस के प्रभाव से इस को इस तरह की लोकोचर मानवी ऋद्धि संप्राप्त हुई है !, इसके अतिरिक्त इस की सुदृढ़ धार्मिक भावना और चारित्रनिष्ठा की अभिरूचि तो इस को और भी पुण्यशाली सूचित कर रही है। उस में एक साथ इतनी विशेषताएं बिना कारण नहीं आ सकतीं-इत्यादि मनोगत विचारपरम्परा से प्रेरित हुए गौतम स्वामी ने इस विषय की जिज्ञासा को भगवान् के पास व्यक्त करने का विचार किया और भगवान् से सुबाहुकुमार में एक साथ उपलब्ध होने वाली विशेषताओं का मूल कारण जानना चाहा। अन्त में वे भगवान् से बोले-प्रभो ! सुबाहुकुमार इष्ट है, इष्ट रूप वाला है, कान्त है, कान्त रूप वाला है, प्रिय है, प्रिय रूप वाला है, मनोज है मनोज्ञ रूप वाला है, मनोम है, मनोम रूप वाला है, सौम्य है, सुभग है, प्रियदर्शन और सुरूप है । भगवन् ! सुबाहुकुमार को यह मनुष्य-ऋद्धि कसे प्राप्त हुई ', यह पूर्वभव में कौन था ।, इस का नाम क्या था ?, गोत्र क्या था ?, इस ने क्या दान दिया था ?, कौन सा भोजन खाया था, क्या आचरण किया था, किस वीतरागी पुरुष की वाणी को सुन कर इस के जीवन का निर्माण हुअा था। ___इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोश, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सोम, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप इन की व्यापकता के लिए मूल में बहुजन और साधुजन ये दो पद दिये हैं । इस तरह उक्त इष्ट आदि १४ पदों का इन दो के साथ पृथक् २ सम्बन्ध करने से बहुजन इष्ट, बहुजन इष्टरूप, बहुजन कान्त, बहुजन कान्तरूप-इत्यादि तथा--- साधुजन इष्ट. साधुजम इष्टरूप, साधुजन कान्त, साधुजन कान्तरूप इत्यादि सब मिला कर २८ भेद होते हैं, इन सब का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है जिस का प्रत्येक व्यापार या व्यवहार अनुकूल हो, वह इष्ट होता है । सुबाहुकुमार का व्यावहारिक जीवन सब को प्रिय होने के नाते वह बहुजनइष्ट कहलाया और उस का ( सुबाहुकुमार का) धार्मिक जीवन साधुओं को अनुकूल होने के कारण वह साधुजनदष्ट बना । जिसे जिस से स्वार्थ होता है अथवा जिस की जिस के प्रति आसक्ति होती है उसे उस का रूप इष्ट प्रतीत होता है, परन्तु सुबाहुकुमार का रूप ऐसा इष्ट नहीं था, इस बात को विस्पष्ट करने के लिए ही यहां साधुजन शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात् सुबाहुकुमार का रूप साधुजनों को भी इष्ट था । साधुजन न तो स्वार्थपरायण होते हैं और नाहिं आसक्तिप्रिय । फिर भी उन्हें जो रूप इष्ट प्रतीत होता है वह कुछ साधारण नहीं अपितु अलौकिक होता है । उस की इष्टता कुछ विभिन्न ही होती है । गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार के रूप को जो इष्ट बतलाया है, उस का श्राशय यह है कि जो रूप For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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