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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५९२ ] श्री विकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध आवश्यकता रहती है। बिना इस के शिथिलता का होना असंभव नहीं है । इसीलिये सूत्रकार ने ४ शिक्षाव्रतों का विधान किया है। ये चार शिक्षाव्रत पूत्र गृहीत व्रतों को दृढ़ करने में एवं उन की पालन की तत्परता में सहायक होते हैं । उन चार शिक्षाव्रतों के नाम और उन की व्याख्या निम्नोत है। १ - सामायिकत्रत – जिस के अनुष्ठान से समभाव की प्राप्ति होती है, राग द्वेष कम पड़ता है, विषय और कषाय की अग्नि शान्त होती है, चित्त निर्विकार हो जाता है, सावध प्रवृत्तियों को छोड़ा जाता है, तथा सांसारिक प्रपंचों की ओर आकर्षित न हो कर आत्मभाव में रमण किया जाता है, उस व्रत अर्थात् अनुष्ठान को सामायिक व्रत' कहते हैं । जैनशास्त्रों में सामायिक का बहुत महत्त्व वर्णित हुआ है । सामायिक का यदि वास्तविक रूप साधक के जीवन में आ जाए तो उस का जीवन सुखी एवं प्रादर्श बन जाता है। सामायिक जीवन भर के लिये भी की जाती है और कुछ समय के लिये भी । कम से कम उस का समय ४८ मिण्ट है । उद्देश्य तो जीवनपर्यन्त ही सावद्य प्रवृत्तियों के त्याग का होना चाहिये, परन्तु यदि यह कम से कम ४८ मिण्टों के लिये तो अवश्य सामायिक करनी चाहिये । यदि त्याग कर लिया जायेगा तो अांशिक लाभ होने के साथ २ इस के द्वारा अहिंसा के दर्शन अवश्य हो जाएंगे, जो भविष्य में उस के जीवन को जीवनपर्यन्त सावद्य प्रवृत्तियों से अलग रखने का कारण बन सकती है । सामायिक दो घड़ी का आध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को पापमल से हल्का करता है और अहिंसा, सत्यादि की साधना को स्फूर्तिशील बनाता | अतः जहां तक बने सामायिकव्रत का आराधन अवश्य किया जाना चाहिये और इस सामायिक द्वारा किये जाने वाले पापनिरोध और श्रात्मनिरीक्षण की अमूल्य निधि को प्राप्त कर परमसाध्य निर्वाणपद को पाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिये । इस के अतिरिक्त सामायिकवत के संरक्षण के लिये निम्नोक्त ५ कार्यों का अवश्य त्याग कर देना चाहिए - I शक्य नहीं है तो गृहस्थ को मुहूर्त भर के लिये पापों का एवं समता की विराट झांकी ११- मनोदुष्प्रणिधान -मन को बुरे व्यापार में लगाना अर्थात् मन का समता से दूर हो जाना तथा मन का सांसारिक प्रपञ्चों में दौड़ना एवं अनेक प्रकार के सांसारिक कर्मविषयक संकल्पविकल्प करना २ - वचोदुष्प्रणिधान - सामायिक के समय विवेकरहित कटु, निष्ठुर, असभ्य वचन बोलना, तथा निरर्थक या सावद्य वचन बोलना | 1 ३ - काय दुष्प्रणिधान - सामायिक में शारीरिक चपलता दिखलाना, शरीर से कुचेष्टा करना, बिना कारण शरीर को फैलाना, सिकोड़ना या बिना पूजे सावधानी से चलना । (१) जो समो सव्वभूपसु तसेसु धावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४ - सामायिक का विस्मरण - मैंने सामायिक की है. इस बात का भूल जाना। अथवा कितनी सामायिक की हैं ?, यह भूल जाना । अथवा - सामायिक करना ही भूल जाना । तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य अर्थात् जो साधक त्रस स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है । [ प्रथम अध्याय For Private And Personal (श्री अनुयोगद्वारसूत्र ) है, उसी की सामायिक शुद्ध जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे शियमे तवे । तम्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ (आवश्यक नियुक्ति) अर्थात् जिसकी आत्मा संयम में, तप में, नियम में सन्निहित संलग्न हो जाती है, उसी की शुद्ध सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है ।
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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