________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
५८८ ]
श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[ प्रथम अध्याय
1
एक भोजन से दूसरा कर्म से । भोजन शब्द से उपभोग्य और परिभोग्य सभी पदार्थों का ग्रहण कर लिया जाता है । भोजनतम्बन्ध परिमाण किस भान्ति होना चाहिए ? इस के सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। रही बात कर्मसम्बन्ध परिमाण को । कर्म का अर्थ है - आजीविका । आजीविका का परिमाण कर्मसम्बन्धी उपभोगपरिभोग परिमाण कहलाता है । तालर्य यह है कि उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिये अधिकपापसाध्य - जिस में महा हिंसा हो, व्यापार का परित्याग कर के अल्प पान - साध्य व्यापार की मर्यादा करना ।
भोजनसम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणत के संरक्षण के लिये निम्नोक ५ कार्यों का सेवन नहीं करना चाहिये -
१ - सचिताहार - जिस खान पान की चीज़ में जीव विद्यमान हैं, उस को सचित्त कहते हैं । जैसे - धान, बीज आदि । जिस सचित्त का त्याग किया गया है उस का सेवन करना ।
२ - सचित्त प्रतिबद्धाहार - वस्तु तो चित्त है परन्तु वह यदि सचित्त वस्तु से सम्बन्धित हो रही है, उस का सेवन करना । तात्पर्य यह है कि यदि किसी का सचित्त पदार्थ को ग्रहण करने का त्याग है तो उसे चित्त से सम्बन्धित अचित्त पदार्थ भी नहीं लेना चाहिये । जैसे- मिठाई अचित्त है परन्तु जिस दोने में रखी हुई है वह सचित्त है, तब सचित्तत्यागी व्यक्ति को उस का ग्रहण करना निषिद्ध है ।
१३ - अपक्वौषधिभक्षणता - जो वस्तु पूर्णतया पकने नहीं पाई और जिसे कच्ची भी नहीं कहा जा सकता, ऐसी अर्धपक्व वस्तु का ग्रहण करना । तात्पर्य यह है कि यदि किसी ने सचित्त वस्तु का त्याग कर रखा है तो उसे जो पूरी न पकने के कारण मिश्रित हो रही है, उस वस्तु का ग्रहण करना नहीं चाहिये। जैसे - लल्ली, होलके (होले) आदि ।
४ - दुष्पक वौषधिभक्षणता जो वस्तु पकी हुई तो है परन्तु बहुत अधिक पक गई है, पक कर बिगड़ गई है, उस का ग्रहण करना । अथवा - जिस का पाक अधिक आरम्भसाध्य हो उस वस्तु का
ग्रहण करना ।
५- तुच्छौषधिभक्षणता - जिस में क्षुधानिवारक भाग कम है, और व्यर्थ का भाग अधिक है, ऐसे पदार्थ का सेवन करना । अथवा जिस वस्तु में खाने योग्य भाग थोड़ा हो और फैंकने योग्य भाग अधिक हो, ऐसी वस्तु का ग्रहण करना ।
उपभोगपरिभोगपरिमाणत का दूसरा विभाग कर्म है अर्थात् श्रावक को उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिये जिन धन्धों में गाड़ कर्मों का बन्ध होता है वे धन्धे नहीं करने चाहिएं । अधिक पावसाध्य धन्धों को ही शास्त्रीय भाषा में कर्मादान कहते हैं । कर्मादान - कर्म और आदान इन पदों से निर्मित हुआ है, जिस का अर्थ है - जिस में गाड़ कर्मों का आगमन हो । कर्मादान १५ होते हैं । उन के नाम तथा उन का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है -
१ - इङ्गालकर्म - इसे अङ्गारकर्म भी कहा जाता है । अङ्गारकर्म का अर्थ है - लकड़ियों के कोयले नाना और उन्हें बेच कर आजीविका चलाना । इस कार्य से ६ काया के जीवों की महान् हिंसा होती है । २ -- वनकर्म -- जंगल का ठेका ले कर, वृक्ष काट कर उन्हें बेचना, इस भान्ति अपनी आजीविका चलाना । इस कार्य से जहां स्थावर प्राणियों की महान् हिसा होती है, वहां त्रस जीवों की भी पर्याप्त हिंसा होती । वन द्वारा पशु पक्षियों को जो आधार मिलना है, उन्हें इस कर्म से निराधार बना दिया जाता है ।
१३ - शाकटिक कर्म - बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी आदि द्वारा भाड़ा कमाना । अथवा गाड़ा गाड़ी
For Private And Personal