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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८०] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय कहना कि मैं वहां खड़ा था, मैंने तो इसे देवा हो नहीं । अथवा न देखने पर कहना कि मैंने स्वयं इसे अमुक काम करते हुए दखा है ..... इत्यादि वाणोविलास सातिसम्बन्धी झूठ कहलाता है। कन्यासम्बन्धी. भूमिसम्बन्धी, गोसम्बन्धी, न्याससम्बन्धी तथा साक्षिसम्बन्धी स्थूल असत्य का दो करण तीन योग से त्याग करना स्थलमृषावादत्यागरूप द्वितीय सत्यारणवत कहलाता है। अनन्त काल से आत्मा असत्य भाषण करने के कारण दुःखोपभोग करती रही है। नाना प्रकार के क्लेश पाती आ रही है, अतः दुःख और क्लेश से विमुक्ति प्राप्त करने के लिये असत्य को छोड़ना होगा तथा सत्य की आराधना करनी होगी। बिना सत्य के अाराधन से आत्मश्रेय साधना असंभव है। संभव है इसी लिए पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी ने सत्य को भगवान् कहा है। सत्य की आराधना भगवान् की अाराधना है। अतः सत्य भगवान् की सेवा में आत्मार्पण कर के परम साध्य निर्वाणपद की उपलब्धि में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करना चाहिये । इस के अतिरिक्त सत्याणुव्रत के संरक्षण के लिये निम्नोक्त पांच कार्यों से सदा बचते रहना चाहिये १-विचार किये बिना ही अर्थात् हानि और लाभ का ध्यान न रख कर आवेश में आकर किसी पर तू चोर है, इस विवाद का तू ही मूल है, इत्यादि वचनों द्वारा मिथ्यारोप लगाना, दोषारोपण करना । २-दूसरों की गुप्त बातों को प्रकट करना। अथवा एकान्त में बैठ कर कुछ गुप्त परामर्श करने वाले व्यक्तियों पर राजद्रोह आदि का दोष लगा देना। ३-एकान्त में अपनी पत्नी द्वारा कही हुई किसी गोपनीय-प्रकट न करने योग्य बात को दूसरों के सामने प्रकट कर देना । अथवा पत्नी, मित्र आदि के साथ विश्वासघात करना। ४-किसी को झूठ उपदेश या खोटी सलाह देना । तात्पर्य यह है कि लोक तथा परलोक सम्बन्धी उन्नति के विषय में किसी उत्पन्न सन्देह को दूर करने के लिये कोई किसी से पूछे तो उसे अधर्ममूलक जघन्य कार्य करने का कभी उपदेश नहीं देना चाहिए । प्रत्युत जीवन के निर्माण एवं कल्याण की बातें ही बतलानी चाहिएं। ५-झूठे लेख लिखना, जालसाजी करना, तात्पर्य यह है कि दूसरे की मोहर आदि लगा देना या हाथ की सफाई से दूसरों के अक्षरों के तुल्य उस ढंग के अक्षर बना देने आदि प्रकारों से कूटलेख नहीं लिखने चाहिये। ३-अस्तेयाणवत-इसे स्थूल अदत्तादालविरमणव्रत भी कहा जा सकता है । क्षा सावधानी से या असावधानी से रखी हुई या भूली हुई किसी सचित्त (गाय, भैंस आदि), अचित्त (सुवर्ण आदि) स्थूल वस्तु का ग्रहण करना जिस के लेने से चोरी का अपराध लग सकता है । अथवा दुष्ट अध्यवसायपूर्वक साधारण वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा के विना ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान कहलाता है गांठे खोल कर चीज़ निकालना, जेब काटना, दूसरे के ताले को बिना अाज्ञा के खोल लेना, पथिकों को लुटना, स्वामी का पता होते हुए भी किसी पड़ी वस्तु को ले लेना, आदि सभी विकल्प स्थूल अदत्तादान में अन्तर्गत हो जाते हैं। ऐसे स्थूल अदत्तादान का दो करण और तीन योग से त्याग करना स्थूलअदत्तादानत्यागरूप तृतीय अस्तेयाणवत कहलाता है । दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित अधिकार करना चोरी है । मनुष्य को अपनी आवश्यकताएं अपने पुरुषार्थ से प्राप्त हुए साधनों के द्वारा पूर्ण करनी चाहिये। यदि प्रसंगवश दूसरों से कुछ लेने की (१) पत्नी की गोपनीय बात प्रकट न करने में यही हाद प्रतीत होता है कि वह अपनी गुप्त बात प्रकट हो जाने से लज्जा तथा क्रोधादि के कारण अपने या दूसरों के प्राणों को घातिका बन सकती है । इस लिये उस की गोपनीय वात को प्रकट करने का निषेध किया है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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