SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 652
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६२ 1 श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पर्यालोचन से पता चलता है कि अधिक विवाह कराने वाले दो वर्ग हैं। एक तो वे जो वैक्रियल न्धि के धारक या वैकियलन्धिसम्मन्न होते हैं। अपने ही जैसे अनेक रूपों को बना लेना और उन से काम भी ले लेना, यह वैकियलब्धि का पुण्यकर्मजन्य प्रभाव होता है। लब्धिधारियों का ऐसा करना कोई आश्रर्यजनक बात नहीं है । रही दूसरे वर्ग की बात, सो इस के विषय में भी यह निर्णय है कि उस समय में ऐसा करना राजा महाराजाओं के वैभव का प्रतीक समझा जाता था। उस समय के विचारकों की दृष्टि में इस प्रथा को गर्हित नहीं समझा गया था, प्रत्युत आदर की दृष्टि से देखा जाता था। इसलिये सुबाहु कुमार का एक साथ ५०० राजकुमारियों के साथ विवाह का होना, उस समय की प्रचलित बहुविवाहप्रथा' को ही आभारी है। उस समय विशाल साम्राज्य के उपभोक्ता का इसी में गौरव समझा जाता था कि उस के अधिक से अधिक विवाह हए हों। किसी विशाल साम्राज्य के अधिपति के कम विवाह हों, यह उस समय के अनुसार वहां के नरेश का अपमान समझा जाता था। यही कारण है कि सुबाहुकुमार के पिता अदीनशत्र के रनिवास को एक हज़ार रानिएं सुशोभित कर रहीं थीं। जिन में प्रधान-पट्टरानी धारिणी देवी थी, परन्तु ध्यान रहे कि जहां अधिक विवाह करना गौरव का अंग बना हुआ था, वहां सदाचारी रहना भी उतना ही आवश्यक था । सुबाहुकुमार के सदाचारी जीवन का परिचय आगे चल कर सूत्रकार स्वयं ही करा देंगे। __पहले से ही यह युग धर्मयुग कहलाता था, उस में धर्म का प्रचार था, चारों ओर धम की दुन्दुभि बजती थी। जिधर देखो उधर ही धर्म की चर्चा हो रही थी। उस के कारण मनोवृत्तियों का स्वच्छ रहना और कामोपासना से विमुख होना स्वाभाविक ही है। आजकल का वासना का पजारी मानव तो इसे झटिति कह देता वा समझ लेता है, परन्तु उसे क्या पता है कि सदाचारी अपने को कामदेव के चंगुल से कितनी नी से बचा लेते हैं और अपने में कितने दृढ़ रहते हैं । अाज के मनुष्य की दशा तो कूप के मंडूक की भान्ति है, जो कूप के विस्तार को ही सर्वोपरि मानता है। सच तो यह है कि जिस का श्रात्मा श्राध्यात्मिक सुख को न देख कर केवल भोग का कलेवर बना हुआ है, वह अपने मानव जीवन को निस्सार कर लेता है और वह उपलब्ध हुए बहुमूल्य अवसर को यों ही खो डालता है। इस के विपरीत सदाचार के सौरभ से सरभित मानस अपने जीवन में अधिकाधिक सदाचारमूलक प्रवृत्तियों का पोषण कर के अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल और अत्युज्ज्वल बना डालता है। पांच सौ कन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह करने का यह अर्थ है कि लोगों के समय, शक्ति और स्वास्थ्य आदि का बचाव किया जाय । एक २ कन्या का अलग २ समय में विवाह किया जाता तो न जाने कितना समय लगता, कितनी शक्ति व्यय होती एवं लगातार गरिष्ट भोजनादि के सेवन से कितनों का स्वास्थ्य बिगड़ता । इस के अतिरिक्त राज्य के प्रबन्ध में भी अमर्यादित प्रतिबन्ध के उपस्थित होने की संभावना रहती। इसी विचार से महाराज अदीनशत्रु ने एक ही दिन में और एक ही मण्डप में विवाह का आयोजन करना उचित समझा, जो कि उन की दीघदर्शिता का परिचायक है । इस के अतिरिक्त इस से समय का उपयोग कितनी निपुणता तथा बद्धिमत्ता से करना चाहिये ? इस बात की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है । एक मेधावी व्यक्ति के समय का मूल्य कितना होता है तथा उस का उपयोग किस रीति से करना चाहिये ?, ये बातें प्रस्तुत (१) सूत्रकार ने जो सुबाहुकुमार के ५०० राजकुमारियों के साथ विवाह का कथानक उपन्यस्त किया है, इस का यह अर्थ नहीं है कि जैनशास्त्र बहुविवाह की प्रथा का समर्थन या विधान करते हैं, परन्तु प्रस्तुत में तो मात्र घटनावृत्त का वर्णन करना ही सूत्रकार को इष्ट है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy