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॥ अथ द्वितीय श्रुतस्कन्ध ॥ प्रथम अध्ययन
भारतवर्ष धर्मप्रधान देश है। यहां धर्म को बहुत अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है । छोटी से छोटी बात को भी धर्म के द्वारा ही परखना भारत की सब से बड़ी विशेषता रही है। इस के अतिरिक्त धर्म की गुणगाथाओं से बड़े २ विशालकाय ग्रन्थ भर रक्खे हैं । जीवन समाप्त हो सकता है परन्तु धर्म की महिमा का का अन्त नहीं पाया जा सकता। धर्म का महत्त्व बहुत व्यापक है । धर्म दुर्गति का नाश करने वाला है । मनुष्य के मानस को स्वच्छ एवं निर्मल बनाने के साथ २ उसे विशाल और विराट बना डालता है । अनादि काल से सोई मानवता को यह जागृत कर देता है । हृदय में दया और प्रेम की नदी बहा देता है । यदि बात ज़्यादा न बढाई जाए तो धर्म की महिमा अपरम्पार है, इतना ही कहना पर्याप्त होगा ।
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१ शास्त्रों में धर्म के दान, शील, तप और भावना ये चार प्रकार बतलाये गये हैं । इन में से पहला प्रकार दान धर्म है। जैनधर्म में दान की बड़ी महिमा बहुत मौलिक शब्दों में अभिव्यक्त की गई है । दान देने बाले को स्वर्ग और मोक्ष का अधिकारी बताया है । दान देने से संसार में कोई भी वस्तु प्राप्य नहीं रहती है । दान जीवन के समग्र सद्गुणों का मूल है, अतः उस का विकास पारमार्थिक दृष्टि से समस्त सद्गुणों का आधार है, तथा व्यावहारिक दृष्टि से मानवी व्यवस्था के सामंजस्य की मूलभित्ति है । दान का मतलब है- न्यायपूर्वक अपने को प्राप्त हुई वस्तु का दूसरे के लिये अर्पण करना । यह उस के कर्ता और स्वीकार करने वाले दोनों का उपकारक होना चाहिये । अर्पण करने वाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उस की ममता हट जाए, फलस्वरूप उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो । स्वीकार करने वाले का उपकार यह है कि उस वस्तु से उस की जीवनयात्रा में मदद मिले और परिणामस्वरूप सद्गुणों का विकास हो ।
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सभी दान दानरूप से एक जैसे होने पर भी उस के फल में तरतम भाव रहता है । यह तरतम भाव दानधर्म की विशेषता के कारण होता है और यह विशेषता मुख्तया दानधर्म के चार अंगों की विशेषता के अनुसार होती है। इन चार अंगों की विशेषता निम्नोक है
१- विधिविशेषता - विधि की विशेषता में देश काल का औचित्य और लेने वाले के सिद्धान्त को बाधा न पहुंचे, ऐसी कल्पनीय वस्तु का अर्पण करना, इत्यादि बातों का समावेश होता है ।
२- द्रव्यविशेषता- - द्रव्य की विशेषता में दी जाने वाली वस्तु के गुणों का समावेश होता है । जिस वस्तु का दान किया जाये वह वस्तु लेने वाले पात्र की जीवनयात्रा में पोषक हो कर परिणामतः उस के निजगुण विकास में निमित्त बने, ऐसी होनी चाहिये ।
१३ - दातृविशेषता - -दाता की विशेषता में लेने वाले पात्र के प्रति श्रद्धा का होना उस के प्रति तिरस्कार या असूया का न होना, तथा दान देते समय या देने के बाद में विषाद न करना, इत्यादि गुणों का समावेश होता है ।
(१) दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउव्विहो धम्मो । सव्वजिणेहिं भणिश्रो, तहा
॥ २९६ ॥
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