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५४४]
श्री विपाक सूत्र -
[दशम अध्याय
४-आदिकर-आचारांग आदि बारह अंगग्रन्थ श्रतधर्म कहे जाते हैं । श्रुतधर्म के आदिकर्ता अर्थात् श्राद्य उपदेशक होने के कारण भगवान महावीर को आदिकर कहा गया है ।
५-तीर्थकर-जिस के द्वारा संसाररूपी मोह माया का नद सुविधा से तिरा जा सकता है, उसे तीर्थ कहते हैं और धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थकर कहलाता है।
६.-स्वयंसम्बुद्ध-अपने आप प्रबुद्ध होने वाला, अर्थात् क्या ज्ञेय है ?, क्या उपादेय है ? और क्या उपेक्षणीय है (उपेक्षा करने योग्य) है ? -- यह ज्ञान जिसे स्वतः ही प्राप्त हुआ है वह स्वयंसंबुद्ध कहा जाता है ।
७-परुषोत्तम-- जो पुरुषों में उत्तम-श्रेष्ठ हो, उसे पुरुषोत्तम कहते हैं, अर्थात् भगवान् के क्या बाह्य और क्या प्राभ्यन्तर, दोनों ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते हैं, इसलिये वे पुरुषोत्तम कहलाते हैं।
८-पुरुषसिंह-भगवान महावीर पुरुषों में सिंह के समान थे । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मृगराज सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण निर्भय रहता है, कोई भी पशु वीरता में उस का सामना नहीं कर सकता, उसी प्रकार भगवान् महावीर भी संसार में निर्भय रहते थे, तथा कोई भी संसारी प्राणी उन के आत्मबल, तप और त्याग संबन्धी वीरता की बराबरी नहीं कर सकता था।
९-पुरुषवरपुडरीक -पुण्डरीक श्वेत कमल का नाम है । दूसरे कमलों की अपेक्षा श्वेत कमल, सौन्दर्य एवं सुगन्ध में अत्यन्त उत्कृष्ट होता है। हज़ारों कमल भी उस की सुगन्धि की बराबरी नहीं कर सकते । भगवान् महावीर पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान थे अर्थात् भगवान् मानव-सरोवर में सर्वश्रेष्ठ कमल थे । उन के आध्यात्मिक जीवन की सुगन्ध अनन्त थी और उस की कोई बराबरी नहीं कर सकता था ।
१०-पुरुषवरगन्धहस्ती-भगवान् पुरुषों में गन्धहस्ती के समान थे । गन्धहस्ती एक विलक्षण हाथी होता है। उस में ऐसी सुगन्ध होती है कि सामान्य हाथी उस की सुगन्ध पाते ही त्रस्त हो भागने लगते हैं । वे उस के पास नहीं ठहर सकते । भगवान् को गन्धहस्ती कहने का अर्थ यह है कि जहां भगवान् विचरते थे वहां अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि कोई भी उपद्रव नहीं होने पाता था।
११-लोकोत्तम-लोकशब्द से स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक, इन तीनों का ग्रहण होता है। तीनों लोकों में जो ज्ञान आदि गुणों की अपेक्षा सब से प्रधान हो, वह लोकोत्तम कहलाता है।
१२-लोकनाथ - नाथ शब्द का अर्थ है -योग (अप्राप्त वस्तु का प्राप्त होना) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की संकट के समय पर रक्षा करना) करने वाला नाथ कहलाता है । लोक का नाथ लोकनाथ कहा जाता है । सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की प्राप्ति कराने के कारण तथा उन से स्खलित होने वाले मेघकुमार आदि को स्थिर करने के कारण भगवान् को लोकनाथ कहा गया है।
. १३-लोकहित-लोक का हित करने वाले को लोकहित कहते हैं । भगवान् महावीर मोहनिद्रा में प्रसुप्त विश्व को जगा कर आध्यात्मिकता एवं सच्चरित्रता की पुण्यविभूति से मालामाल कर उस का हित सम्पादित करते थे।
१४ - लोकप्रदीप -लोक के लिये दीपक की भान्ति प्रकाश देने वाला लोकप्रदीप कहा जाता है । भगवान् लोक को यथावस्थित वस्तु स्वरूप दिखलाते हैं, इसलिये इन्हें लोकप्रदीप कहा गया है।
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