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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७ निदान आदि द्वारा निर्णय करते हुए वे वैद्य । अतए देवीए-अंजूदेवी के(नामा प्रकार के प्रयोगों द्वारा)। जो. णिसूलं - योनिशल को। उवसामित्तर-उपशान्त करना । इच्छंति - चाहते हैं, अर्थात् यत्न करते हैं, परन्तु उवसामित्तार -उपशान्त करने में । नो संचाएंति-समर्थ नहीं होते अर्थात् अंजूदेवी के योनिशूल को उपशांत दूर करने में सफल नहीं हो पाये। तते णं-तदनंतर । ते वेज्जा य ६-वे वैद्य श्रादि । जाहे-जब । अतएअंजू। देवीए- देवी के । जोणिसूल-योनिशूल को । उवसामित्तए-उपशान्त करने में । नो संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे - तब । तंता-तांत-खिन्न । संता-श्रांत, और । परितंता-हतोत्साह हुए २ । जामेव-जिस । दिसं-दिशा से। पाउम्भूता-आये थे । तामेव - उसी । दिसं-दिशा को । पडिगता- वापिस चले गये। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । अञ्जू देवी- अंजू देवी । ताप-उस । वेयणाए-वेदना से । अभिभूया-अभिभूत –युक्त । समाणी-हुई २ । सुक्का-सूख गई। भुक्खा - भूखी रहने लगी। निम्मंसा-मांसरहित हो गई । कट्ठाई-कष्टहेतुक । कतुणाई - करुणोत्पादक । वीसराईदीनतापूर्ण वचनों से । विलवति-विलाप करती है । गोयमा !- हे गौतम !। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अज्जू देवी -अंजूदेवी । पुरा जाव विहरति-पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का फल भोग रही है। मूलार्थ-किसी अन्य समय अंजूश्री के शरीर में योनिशूल नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया। यह देख विजयनरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग वर्धमानपुर में जाकर वहां के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य रास्तों पर यह उद्घोषणा कर दो कि देवी अंजूश्री के योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है, अतः जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस को उपशांत कर देगा तो उसे महाराज विजयमित्र पुष्कल धन प्रदान करेंगे । तदनन्तर राजाज्ञा से अनुचरों के द्वारा की गई इस उद्घोषणा को सुन कर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि विजयमित्र के पास आते हैं और वहां से देवी अंजूश्री के पास उपस्थित हो कर औत्पातिकी आदि बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त करते हुए विविध प्रकार के आनुभविक प्रयोगों के द्वारा देवी अंजूश्री के योनिशूल को उपशान्त करने का यत्न करते हैं, परन्तु उन के प्रयोगों से देवी अंजूश्री का योनिशूल उपशान्त नहीं हो पाया । तदनन्तर जब वे अनुभवी वैद्य अंजश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गये, तब वे खिन्न, श्रान्त और हतोत्साह हो कर जिधर से आये थे उधर को ही चले गये । तत्पश्चात् देवी अंजुश्री उस शूल जन्य वेदना से दुःखी हुई २ सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांसरहित होकर कष्ट, करुणाजनक और दीनतापूर्ण शब्दों में विलापकरती हई जीवन यापन करने लगी। भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार देवो अंजूश्री अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्मों के फल का उपभोग करती हुई जीवन व्यतीन कर रही है । टीका-सुख और दुःख ये दोनों प्राणी के शुभ और अशुभ कर्मों के फलविशेष हैं, जो कि समय २ पर प्राणी उन के फल का उपभोग करते रहते हैं। शभकर्म के उदय में जीव सुखी और अशुभ के उदय में जीव दु:ख का अनुभव करता है । एक की समाप्ति और दूसरे का उदय इस प्रकार चलने वाले कर्मचक्र में भ्रमण करने वाले जीव को सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख का निरंतर अनुभव करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जब तक आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध है तब तक उन में समय २ पर सुख और दुःख दोनों की अनुभूति बनी रहती है। उक्त नियम के अनुसार अजूश्री के जब तक तो शुभ कर्मों का उदय रहा तब तक तो उसे शारीरिक और मानसिक सब प्रकार के सुख प्राप्त रहे, महाराज विजयमित्र की महारानी बन कर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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