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दशम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
प्रथम-जाव-यावत् पद -तलवरमाडम्बियकोइम्बियइब्भसेट्ठिसत्यवाह-इन पदों का तथा द्वितीय जाव-यावत् पद -हिय उडावणेहिं य निराहवणेहिं य परहवणेहिं य वसीकरणेहिं य आभिगिएहिं य-इन पदों का परिचायक है । तलवर -आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर, तथा-हियउड्डावणेहि इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १८७ पर लिखा जा चुका है । तथा -एयकम्मा ४- यहां के अङ्क से अभिमत पाठ का विवण पृष्ठ १७९ की टिप्पण में दिया जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है वहां ये एक पुरुष के विशेषण है, जब कि प्रस्तुत में एक स्त्री के । लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है।
-उकोसेणं णेरइयत्तार- यहाँ का बिन्दु -वावीससागरोवमट्टि इएसु नेरइरसु- इन पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है ।
-सेसे जहा देवदत्ताए - इन पदों से सूत्रकार ने अञ्जुश्री के जीवनवृत्तान्त को देवदत्ता के तुल्य संसूचित किया है, अर्थात् जिस प्रकार दुःखविपाक के नवम अध्ययन में देवदत्ता के पालन, पोषण, शारीरिक सौंदर्य तथा कुन्जादि दासियों के साथ विशाल भवन के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद से खेलने का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार अजूश्री के सम्बन्ध में भावना कर लेनी चाहिये।
-पासवा ० - यहां का बिन्दु-हणियाए णिज्जायमाणे-इस पाठ का बोधक है । तथाजहेव घेसमणदत्त तहेव अजू-इन पदों से सूत्रकार ने नवम अध्ययन में वर्णित पदार्थ की ओर संकेत किया है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नवमाध्याय में वर्णित रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त गाथापति के घर के निकट जाते हुए सोने की गेंद से खेलती हुई देवदत्ता को देखते हैं और उसके रूपादि से विस्मत एवं मोहित होते हैं, वैसे ही वर्धमाननरेश विजय धनदेव के घर के निकट जाते हुए अञ्जूश्री को देख कर उस के रूपादि से विस्मित एवं मोहित हो जाते हैं।
-णवर अप्पणो अट्ठार वरेति-- यहां प्रयुक्त लवरं- इस अव्यय पद का अर्थ है-केवल अर्थात् केवल इतना अन्तर है । तात्पर्य यह है कि वैश्रमणदत्त और विजयभित्र में इतना अन्तर है कि वैश्रमणदत्त नरेश ने देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दो के लिये मांगा था जब कि विजय नरेश ने अजूश्री को अपने लिये अर्थात् अपनी रानी बनाने के लिये याचना की थी ।
-जाव अजूए-यहां पठित जाव-यावत् पद से श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १४वें अध्ययन में वर्णित तेतलिपत्र ने जिस तरह पोटिल्ला को अपने लिये मांगा था-श्रादि कथासदर्भ के संसूचित पाठ को सूचित किया गया है, जिसे श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में देखा जा सकता है।
- उधि जाव विहरति- यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत-पासाएवरगए फुटमाणेहिंसे ले कर-पच्चणुभवमाणे – यहां तक के पद पृष्ठ २३४ पर लिखे जा चुके हैं । अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का वर्णन है, जब कि वस्तुत में विजय नरेश का !
अब सूत्रकार अंजूश्री के आगामी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैंमूल-'तते णं तीसे अंजए देवीए अन्नया कयाइ जाणिमले पाउन्भूते यानि होत्था ।
(१) छाया- ततस्तस्या अंज्वा देव्या अन्यदा कदाचित् योनिशूलं प्रादुर्भूतं चाप्यभूत् । ततः स विजयो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दाययति २ एवमवादीत् -गच्छत देवानुप्रिया: ! वर्धमानपुरे नगरे शृघाटक० यावद् एवमवदत-एवं खलु देवानुप्रिया: ! अंज्वा देव्या योनिशूलं प्रादुर्भूतं य इच्छति वैद्यो वा ६ यावदुद्घोषयन्ति ।
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