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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५२१ लुट जाने पर एक साधारण व्यक्ति की होती है। माता की इस आकस्मिक और क्रूरतापूर्ण मृत्यु से उस के हृदय पर इतनी गहरी चोट लगी कि वह कुठार के आघात से कटी गई चम्पकवृक्ष की शाखा की भान्ति धड़ाम से पृथिवी पर गिर गया। उस का शरीर निश्चेष्ट हो मुहूर्तपर्यन्त पृथिवी पर पड़ा रहा। उस के अंगरक्षक तथा दरबारी लोग चित्रलिखित मूर्ति की तरह निस्तब्ध हो खड़े के खड़े रह गये । अन्त में अनेक प्रकार के उपचारों से जब पुष्यनन्दी को होश आई तो वह फूट फूट कर रोने लगा। मंत्रिगण तथा अन्य सम्बन्धिजनों के वार २ आश्वासन देने पर उसे कुछ शान्ति मिली । तदनन्तर उसने राजोचित ठाठ से राजमाता का निस्सरण किया अर्थात् बाजों की ध्वनि से श्राकाश को गुंजाता हुआ रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी माता की अरथी निकालता है और दाहसंस्कार के अनन्तर विधिपूर्वक उसका मृतककर्म कराता है ! अपनी पूज्य मातेश्वरी श्रीदेवी के शव के दाहसंस्कार आदि करने के अनंतर जब मातृघात करने वाली अपनी रानी देवदत्ता की ओर ध्यान दिया तो उसमें दुःख और क्रोध दोनों ही समानरूप से जाग उठे । दुःख इसलिये कि उसे अपनी पूज्य माता के वियोग की भान्ति देवदत्ता का वियोग भी असह्य था और क्रोध इस कारण कि उस की सहधर्मिणी ने वह काम किया कि जिस की उस से स्वप्न में भी सम्भावना नहीं की जासकती थी । अन्त में उसे देवदत्ता के विषय में बड़ा तिरस्कार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा- मेरी तीर्थ के समान पूज्य माता को इस भान्ति मारना और वह भी किसी विशेष अपराध से नहीं; किन्तु मैं उस की सेवा करता हूं केवल इसलिये । धिक्कार है ! ऐसी स्त्री को । धिक्कार है उस के ऐसे निर्दयतापूर्ण क्रूरकर्म को । क्या देवदत्ता मानवी है ? नहीं २ साक्षात् राक्षसी है । रूपलावण्य के अन्दर छिपी हुई हलाहल है । अस्तु, जिसने मेरी पूज्य माता का इतनी निर्दयता से वध किया है, उसे भी संसार में रहने का कोई अधिकार नहीं । उसे भी उसके इस 1 पैशाचिक कृत्य के अनुसार ही दण्ड दिया जाना चाहिये, यही न्याय है, यही धर्मानुप्राणित राजनीति है । इन विचारों से क्रोध के आवेश से महाराज पुष्यनन्दी का मुख लाल हो जाता है. और वह अपने राजपुरुषों को देवदत्ता को पकड़ लाने का आदेश देता है, तथा आदेशानुसार पकड़ कर लाये जाने पर उसे अमुक प्रकार से वध करने की आज्ञा देता है। 1 चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर बोले- गौतम ! आज तुम ने जिस भीषण दृश्य को देखा है और जिस स्त्री की मेरे पास चर्चा की है, यह वही देवदत्ता है । देवदत्ता के लिये ही महाराज पुष्यनन्दी ने इस प्रकार से द देने तथा वध करने की आज्ञा प्रदान की है। अतः गोतम ! यह पूर्वकृत कर्मों का ही कटु परिणाम है । इस तरह रोहीतक नगर के राजपथ में देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी गौतमस्वामी के प्रश्न का वीर भगवान् की तरफ से उत्तर दिया गया, जो कि मननीय एवं चिन्तनीय होने के साथ २ मनुष्य को विषयों से विरत रहने की पावन प्रेरणा भी करता है । - राईसर० जाव सत्थवाहेहिं मित्त० जाव परिजगां - यहां पठित प्रथम जाव - यावत् पद तलवरमाडम्बियको डुम्बियइब्भसेट्ठि - - इन पदों का, तथा द्वितीय जाव- यावत् पद- गाइनियगसयणसम्बन्धि -इन पदों का परिचायक है । राजा नरेश का नाम है। ईश्वर आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर, तथा मित्र आदि शब्दों का अथ पृष्ठ १५० के टिप्पण में लिखा जा चुका है । - - रोयमाणे ३ - यहां ३ के अंक से - कंद्रमाणे विलवमाणे – इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । आंसुओं का बहना रुदन, ऊंचे स्वर से रोना कन्दन और आर्तस्वरपूर्वक रुदन विलाप कहलाता है । तथा श्रासुरुत ४ - यहां के अंक से अभिमत पद पृष्ठ १७७ पर लिखे जा चुके हैं। 1 For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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