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नवम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[५०१
तदनन्तर ! ते - वे | ठाणेज्जपुरिसा
स्थानीयपुरुष । जेणेव वेसमणे राया- जहां पर महाराज वैश्रमणदत्त
.
थे : तेणेव · वहीं पर । उवागच्छन्ति २ - आगये, आकर ! वेसमणस्स वैश्रमणदत्त । रग्णा - राजा को । एतमहं - इस अर्थ का अर्थात् वहां पर हुई सारी बातचीत का निवेदति-निवेदन करते हैं
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मूलार्थ तदनन्तर महाराज वैश्रमणदत्त अश्वत्रादनिका से अश्वक्रीडा से वापिस अपने अभ्यन्तरस्थानीय - अन्तरंग पुरुषों को बुलाते हैं, बुलाकर उन को इस प्रकार कहते हैं - हे महानुभवो ! तुम जाओ, जाकर यहां के प्रतिष्ठित सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करो । यद्यपि वह स्वराज्यया है अर्थात् वह यदि राज्य दे कर भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेनी योग्य है !
महाराज वैश्रमण की इस यात्रा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर के वे लोग स्नानादि कर और शुद्ध तथा राजसभादि में प्रवेश करने योग्य एवं उत्तम वस्त्र पहन कर जहां दत्त सार्थवाह का घर था, वहां जाते हैं। दत्त सेठ भो उन्हें आते देख कर बड़ी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ आसन से उठ कर उन के सत्कारार्थ सात आठ क़दम आगे जाता है और उनका स्वागत कर आमन पर बैठने की प्रार्थना करता है । तदनन्तर गतिजनित श्रम के दूर होने से स्वस्थ तथा मानसिक क्षोभ के न रहने के कारण विशेष रूप स्वास्थ्य को प्राप्त करते हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हो जाने पर उन आने वाले सज्जनों को दत्त सेठ विनम्र शब्दों में निवेदन करता हुआ। इस प्रकार बोला- महानुभावो ! आपका यहां किस तरह से पधारना हुआ है ?, मैं आपके आगमन का हेतु जानना चाहता हूँ । दत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने के अनन्तर उन पुरुषों ने कहा कि हम आप की पुत्री और कृष्णश्री को आत्मा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करने के लिये आये हैं । यदि हमारी यह मांग आप को संगत, अमरप्राप्त, श्रावनीय और इन दोनों का सम्बन्ध अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिये दे दो, और कहो, आप को क्या शुल्क - उपहार दिलवाया जाय ? |
उन अभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुन कर दत्त बोले कि महानुभावो ! मेरे लिये यही बड़ा भारी शुल्क है जो कि महाराज वैश्रमण दत्त मेरो इस बालि को ग्रहण कर मुझे कर रहे हैं। तदनन्तर दत्त सेठ ने उन सब का पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से arrfan सत्र किया और उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित किया। तदनन्तर वे स्थानीयपुरुष महाराज वैश्रमण के पास आये और उन्होंने उन को उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।
टीका - मनोविज्ञान का यह नियम है कि मन सदा नवीनता की ओर झुकता है, नवीनता की तरफ आकर्षित होना उस का प्रकृतिसिद्ध धर्म है । किसी के पास पुरानी पस्तक हो उसे कोई नवीन तथा सुन्दर पुस्तक मिल जावे तो वह उस पुरानी पुस्तक को छोड़ नई को स्वीकार कर लेता है, इसी प्रकार यदि किसी के पास साधारण वस्त्र है, उसे कहीं से मन को लुभाने वाला नूतन वस्त्र मिल जाए तो वह पहले को त्याग देता है । एक व्यक्ति को साधारण - रूखा सूखा, भोजन मिल रहा है, इसके स्थान में यदि कोई दयालु पुरुष उसे स्वादिष्ट भोजन ला कर दे तो वह उसी की ओर ललचाता है। सारांश यह है कि चाहे कोई धार्मिक हो चाहे सांसारिक प्रत्येक व्यक्ति नवीनता और सुन्दरता की ओर आकर्षित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । उन में अन्तर केवल इतना होगा कि धार्मिक व्यक्ति आत्मविकास में उपयोगी धार्मिक साधनों की नवीनता चाहता है और सांसारिक प्राणी संसारगत नवीनता की ओर दौड़ता है ।
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