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हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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नवम अध्याय ]
जाव - यावत् । क्रियाति -विचार करने लगी ।
मूलार्थ - तदनन्तर महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में मूच्छित, गृद्ध, प्रथित और अध्युपन्न हुआ २ अन्य देवियों का न तो आदर करता है और न उन का ध्यान ही रखता है, विपरीत इस के उन का अनादर और विस्मरण करता हुआ मानन्द समय यापन कर रहा है ।
तदनन्तर उन एक कम पांच सौ देवियों - रानियों की एक कम पांच सौ माताओं ने जब यह जाना कि" - महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में मूच्छिन, गृद्र. प्रथित और अध्युपपन्न हो हमारी कन्याओं का न तो आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है" तब उन्होंने मिल कर निश्चय किया कि हमारे लिये यही उचित है कि हम श्यामा देवी को अग्निप्रयोग, विषप्रयोग या शस्त्रप्रयोग से जीवनरहित कर डालें । इस तरह विचार करने के अनन्तर वे श्यामादेवी के अन्तर छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करती हुई समय व्यतीत करने लगीं । इधर श्यामादेवी को भी इस षड्यन्त्र का पता चल गया, , जिस समय उसे यह समाचार मिला तो वह इस प्रकार विचार करने लगी कि मेरी एक कम पांच सौ सात्नियों की एक कम पांच सौ माताएं " -- महाराज सिंहसेन श्यामा में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी पुत्रियों का आदर नहीं करता " यह जान कर एकत्रित हुई और * - अग्नि, विष या शस्त्र के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्व कर देना ही हमारे लिये श्रेष्ठ है-" ऐसा विचार कर वे उस अवसर की खोज में लगी हुई हैं। यदि ऐसा ही है तो न जाने के मुझे किस कुमौत से मारें ?, ऐसा विचार कर वह श्यामाभी, त्रस्त, उद्विग्न और संजातमय हो उठी, तथा जहां कोपभवन था वहां आई और आकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से निराश मन से बैठो हुई यावत् विचार करने लगी । टीका - जैनशास्त्रों में ब्रह्मचर्य व्रत के दो विभाग उपलब्ध होते हैं - महाव्रत और अणुव्रत । हिन्दू शास्त्रों में इस के पालक की व्याख्या नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा उपकुर्वाण ब्रह्मचारी के रूप में की गई है । जो साधु मुनिराज तथा साध्वी सत्र प्रकार से स्त्री तथा पुरुष के संसर्ग से पृथक् रहते हैं, वे सर्वविरति अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं, तथा जो अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की शेत्र स्त्रियों को माता तथा भगिनी एवं पुत्री के रूप में देखते हैं वे देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मचारी कहलाते हैं । प्रस्तुत में हमें देशविरति या उपकुर्वाण ब्रह्मवारी के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है ।
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यह ठीक हैं कि देश विरत गृहस्थ अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष स्त्रियों को माता. बहिन और पुत्री के तुल्य समझे परन्तु अपनी स्त्री के साथ किये जाने वाले संसर्ग का भी यह अर्थ नहीं होता कि उस में वह इतना आसक्त हो जाए कि हर समय उसी का चिन्तन तथा ध्यान करता रहे और उस को एक मात्र कामवासना की पूर्ति का साधन ही बना डाले, ऐसा करना तो स्वदार सन्तोष की कड़ी अवहेलना करने के अतिरिक्त पाप कर्म का भी अधिकाधिक बन्ध करना है । विषयासक्ति कर्तव्यपालक को कर्तव्यनाशक, अहिंसक को हिंसक, तथा दयालु को हिंसापरायण बना देती है । आसक्ति में स्वार्थ है, संकोच है और गर्व है, वहां दूसरे के हित को कोई अवकाश नहीं, अत विचारशील व्यक्ति को इस से सदा पृथक् ही रहने का उद्योग करना चाहिये ।
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महाराज सिंहसेन के जीवन में आसक्ति की मात्रा कुछ अधिक प्रमाग में दृष्टिगोचर हो रही है । महारानी श्यामा पर वे इतने आसक्त थे कि उस के अतिरिक्त किसी दूसरी विवाहिता रानी का उन्हें ध्यान तक भी नहीं आता था। तात्पर्य यह है कि महाराज सिंहसेन श्यामा के स्नेहपाश में बुरी तरह फंस गये थे ।