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श्री विपाक सूत्र -
[नवम अध्याय
लजंतजुत्त' पिव अचवीसहस्समालणीयं स्वगसहस्सकलियं मिसमाग भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयलेसं सुहफासं सस्तिरीयरूवं कंचणमणिरयणधू भियागं नाणा विहपंचवरणघण्टा पडागपरिमण्डि - यहि धवलमिरीचिकवयं विणिम्मुयंत लाउल्जोइयमहियं गोसोससर सरत्तचंदगदद्दर दिन्नपंचगुलितलं उवचियचंद कलर्स चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं श्रासतोस त्तविउलग्वारियमल्लदामकलावं पंचवरणसरस सुरभिमुक्कपुफ्फपुञ्जोवयार कलियं कालागरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंत गंधुद्धयाभिरामं सुगन्धवरगन्धियं गंधवहिभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं - इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है
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वे महल अभ्युद्गत - श्रत्यन्त उच्छ्रित - ऊंचे थे और मानों उन्हों ने हंसना प्रारम्भ किया हुआ हो अर्थात् वे अत्यधिक श्वेतप्रभा के कारण हंसते हुए से प्रतीत होते थे । मणियों -सूर्यकान्त दि
सुवर्णों और रत्नों की रचनाविशेष से वे चित्र - आश्चर्योत्पादक हो रहे थे 1 वायु से कंपित और विजय की संसूचक वैजयन्ती नामक पताकाओं से तथा छत्रातिछत्रों । छत्र के ऊपर छत्र ) से वे प्रासाद - महल युक्त थे । वे तुङ्ग - बहुत ऊंचे थे, तथा बहुत ऊंचाई के कारण उन के शिखर चोटियां मानों गगनतल को उल्लंघन कर रही थीं । जालियों के मध्य भाग में लगे हुए रत्न ऐसे चमक रहे थे मानों कोई आंखें खोल कर देख रहा था अर्थात् महलों के चमकते हुए रत्न खुली खों के समान प्रतीत हो रहे थे । उन महलों की स्तूपिकाएं - शिखर मणियों और सुवणों से खचित थीं, उन में शतपत्र ( सौ पत्ते वाले कमल) और पुण्डरीक ( कमल विशेष ) विकसित हो रहे थे, अथवा. इन कमलों के चित्रों से वे चित्रित थे । तिलक, रत्न और अर्धचन्द्र - सोपानविशेष इन सब
वे चित्र - आश्चर्यजनक प्रतीत हो रहे थे । नाना प्रकार की मणियों से निर्मित मालाओं से अलंकृत थे । भीतर और बाहिर से चिकने थे । उन के प्रांगणों में सोने का सुन्दर रेत बिछा हुआ था । वे सुखदायक स्पर्श वाले थे । उन का रूप शोभा वाला था वे प्रासादीय- चित्त को प्रसन्न अभिरूप - जिन्हें एक बार जब भी देखा जाए तब
करने वाले, दर्शनीय – जिन्हें बारम्बार देख लेने पर भी आंखें न थर्के, देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे और प्रतिरूप - जिन्हें ही वहां नवीनता ही प्रतिभासित हो, थे ।
उन पांच सौ प्रासादों के लगभग मध्य भाग में एक महान भवन तैयार कराते हैं । प्रासाद और भवन में इतना ही अन्तर होता है कि प्रासाद अपनी लम्बाई की अपेक्षा दुगुनी ऊंचाई वाला होता है। अथवा अनेक भूमियों - मंज़िलों वाला प्रासाद कहा जाता है जब कि भवन अपनी लम्बाई की अपेक्षा कुछ ऊंचाई वाला होता है, अथवा एक ही भूमि मंजिल वाला मकान भवन कहलाता है । भवनसम्बन्धी वर्णक पाठ का विवर्ण निम्नोक्त है
उस भवन में सैंकड़ों स्तम्भ - खम्भे बने हुए थे, उस में लोला करती हुई पुतलियें बनाई हुई थीं । बहुत ऊंची और बनवाई गईं वज्रमय वेदिकाएं चबूतरें, तोरण बाहिर का द्वार उस में थे, जिन पर सुन्दर पुतलियां अर्थात् लकड़ी, मिट्टी, धातु, कपड़े आदि की बनी हुई स्त्री की आकृतियां या मूर्तियां जो विनोद या क्रीड़ा ( खेल ) के लिए हों, बनाई गई थीं। उस भवन में विशेष आकार वाली सुन्दर और स्वच्छ जड़ी हुई वैडूर्य मणियों के स्तम्भों पर भी पुतलियां बनी हुई थीं । अनेक प्रकार की मणियों सुवर्णों, तथा रत्नों से वह भवन खचित तथा उज्ज्वल -- प्रकाशमान हो रहा था । वहां का भूभाग समतल वाला और अच्छी तरह से बना हुआ, तथा अत्यधिक रमणीय था । ईहामृग – भेडिया, वृषभ - बैल, अश्त्र - घोड़ा, मनुष्य, मगर - मत्स्य, पक्षि, सर्प,
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