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अथ नवम अध्याय
जैनागमों में ब्रह्मचारी की बड़ी महिमा गाई गई है। श्री प्रश्नव्याकरण' सूत्र में ब्रह्मचर्य व्रत के धारक को भगवान् से उपमित किया गया है। ब्रह्मचारी शब्द में दो पद है । ब्रह्म और चारी । ब्रह्म शब्द का प्रयोग -२मैथुनत्याग, आनन्दवद्धक, ४ वेद-धर्मशास्त्र, तप और शाश्वत ज्ञान" इन अर्थों में होता है, और चारी का अर्थ आचरण करने वाला है । तब ब्रह्मचारी शब्द का- ब्रह्म का आचरण करने वाला यह अर्थ निष्पन्न हुआ।
ऊपर बतलाये अनुसार यद्यपि ब्रह्म के अनेक अर्थ हैं, तथापि आजकल इसका रूढ़ अर्थ मथुनत्याग है । इसलिए वर्तमान में मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य और उसका सम्यक् आचरण करने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है। इस अर्थविचारणा से जो व्यक्ति स्त्रीसंबन्ध से सर्वथा पृथक रहता है, तथा प्रत्येक स्त्री को माता, भगिनी या पुत्री की दृष्टि से देखता है, वह ब्रह्मचारी है। इसी भान्ति यदि स्त्री हो तो वह ब्रह्मचारिणी है। ब्रह्मचारिणी स्त्री संसार भर के पुरुषों को पिता और भाई एवं पुत्र के तुल्य समझती है।
ब्रह्मचर्यव्रत असिधारा के तुल्य बतलाया गया है, जिस तरह तलवार की धारा पर चलना कठिन होता है, उसी तरह ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना भी नितान्त कठिन होता है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के पालन में मन के ऊपर बड़ा भारी अंकुश रखने को आवश्यकता होती है । इस की रक्षा के लिये शास्त्रों में अनेक प्रकार के नियमोपनियम बतलाये गए हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अध्याय में लिखा है कि दस कारण ऐसे होते हैं जिन के सम्यग अाराधन से ब्रह्मचारी अपने व्रत का निर्विघ्नता से पालन कर सकता है, वे दश ५कारण निम्नोक्त हैं -
१-जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुसक का निवास हो , उस स्थान में ब्रह्मचर्य के पालक व्यक्ति को नहीं रहना चाहिये।
२- ब्रह्मचारी स्त्रीसम्बन्धी कथा न करे अर्थात् स्त्रियों के रूप, लावण्य का वर्णन तथा अन्य कामवर्धक चेष्टाओं का निरूपण न करे।
३- ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ एक अासन से न बैठे और जिस स्थान पर स्त्रिये बैट चुकी हैं, उस स्थान पर मुहूर्त (दो घड़ी) पर्यन्त न बैठे।
४- ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर - मन को हरने वाली और मनोरम – मन में अाह्वाद उत्पन्न करने वाली इन्द्रियों की ओर ध्यान न देवे ।
(१) "तं बंभं भगवंतं......तित्थगरे चेव मुणीणं" ( सम्बरद्वार ४ अध्ययन ) । (२) ब्रह्मति ब्रह्मचर्य मैथुनत्यागः । (३) बृहति-वद्धतेऽस्मिन् श्रानन्द इति ब्रह्म । (४) ब्रह्म वेदः, ब्रह्म तपः ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतं तच्चरत्यर्जयत्यवश्यं ब्रह्मचारी।
(५) इन कारणों का अर्थ सम्बन्धी अधिक ऊहापोह करने के लिए देखो, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य परमपूज्य परमश्रद्धेय गुरुदेव श्री श्रात्मा राम जी महाराज द्वारा निर्मित श्री उत्तराध्ययन सूत्र की आत्मज्ञानप्रकाशिका नामक हिन्दीभाषाटीका।
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