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४६२ ]
श्री विपाक सूत्र
[ अष्टम अध्याय
तात्पर्य यह है कि वह घटीयंत्र की तरह संसार में निरन्तर भ्रमण ही करता रहेगा या उस के इस जन्म तथा मरण सम्बन्धी दुःख का कभी अन्त भी होगा ?,
गौतम स्वामी का यह प्रश्न बड़ा ही रहस्यपूर्ण है । आवागमन के चक्र में पड़ा हुअा जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है । कभी उसे सुख की उपलब्धि होती है और कभी दुःख की प्राप्ति । परन्तु विचार किया जाये तो उसका वह सुख भी दुःखमिश्रित होने से दुःखरूप ही है। वहां सुख का तो केवल
आभासमात्र है। तात्पर्य यह है कि कर्मसम्बन्ध से जब तक जन्म और मृत्यु का सम्बन्ध इस जीवात्मा के साथ बना हुआ है, तब तक इस को शाश्वत सुव की उपलब्धि नहीं हो सकती । उस की प्राप्ति का सर्व - प्रथम साधन 'सम्यकत्व की प्राप्ति है, सम्यक्त्व के बाद ही चारित्र का स्थान है । दर्शन तथा चारित्र की सम्यग अाराधना से यह अात्मा अपने कर्मधन्धनों को तोड़ने में समर्थ हो सकता है । कमबन्धनों को तोड़ने से श्रात्मशक्तिये विकसित होती हैं, उन का पूर्ण विकास -आत्मा की कैवल्यावस्था अर्थात् के लज्ञान प्राप्ति की अवस्था है, उस अवस्था को प्राप्त करने वाला जोवन्मुक आत्मा जैन परिभाषा के अनुसार सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता. हुअा सदेह या साकार ईश्वर के नाम से अभिहित किया जा सकता है । इसके पश्चात् अर्थात् औदारिक अथच कार्मण शरीर के परित्याग के अनन्तर निर्वाण पद को प्राप्त हा श्रात्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर और अमर के नाम से सम्बोधित किया जाता है । तब शौरिकदत्त का जीव इस जन्म तथा मरण की परम्परा से छूट कर कभी इस अवस्था को भी जो कि उसका वास्तविक स्वरूप है, प्राप्त करेगा कि नहीं है, यह गौतम स्वामी के प्रश्न का अभिप्राय है।
इसके उत्तर में भगवान महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया उसका वर्णन मूलार्थ में स्फुटरूप से कर दिया गया है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । अस्तु, शौरिकदत्त का जीव अन्त में समस्त कर्मबन्धनों को तोड़कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीयं से युक्त होता हुश्रा परम कल्याण और परम सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करेगा।
-रयणप्पभाए. संसारो तहेव जाव पुढवीए०-इन पदों से तथा इनके साथ दी गई बिन्दुओं से अभिमत पाठ पृष्ठ ३३६ पर, तथा –बोहिं०, सोहम्मे०, महाविदेहे वासे० सिझिहिति ५-इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है।
पाठकों को स्मरण होगा कि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन को सुन लेने के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से उसके अष्टम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत अष्टमाध्याय सुनाना प्रारम्भ किया था । अध्ययन की समाप्ति पर आर्य सधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी को जो कुछ फरमाया, उसे सूत्रकार ने निम्खेवो-निक्षेपः-- इस पद में गर्भित कर दिया है। निक्खेवो--पद का अर्थसम्बन्धी विचार पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । प्रस्तुत में इससे जो सूत्रांश अपेक्षित है, वह निम्नोक्त है -
एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं अहमस्स अझयणस्स अयमट्टे पर णत्ते, ति बेमि । अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान्
(१) नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दसणे उ भइयव्वं । ___ सम्मत्तचरित्ताई जुगवं, पुव्वं व सम्मत्त ।। (उत्तराध्ययन सूत्र अ० २८/२९) ।
अर्थात् सम्यक्त्व -समकित के बिना चारित्र नहीं हो सकता और दर्शन में उसकी-चारित्र की भजना है अर्थात् जहां पर सम्यक्त्व होता है वहां पर चारित्र हो भी सकता है और नहीं भी, तथा यदि दोनों- दर्शन और चारित्र, एक काल में हो तो उन में सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्रथम होगी ।
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