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४५८]
श्री विपाक सूत्र
अध्याय
कर्मरूप मल के सम्पर्क में आने से यह अात्मा भी मलिन होने से नहीं बच सकता। शौरिकदत्त ने पापकों के आचरण से अपने आत्मा को अधिक से अधिक मात्रा में मलिन करने का उद्योग किया और उस के फलस्वरूप उस का मानवजीवन भी अधिक से अधिक दु:ख का भाजन बना ।
एक दिन शौरिकदत्त शूलापोत किए हुए, तले और भूने हुए मत्स्यमांस को खा रहा था, तो वहीं उस मांस में जो मच्छी का कोई विषैला -जहरीला कांटा रह गया था, वह उस के गले में चिपट गया । कांटे के गले में लगते ही उसे बड़ी असह्य वेदना हुई, वह तड़प उठा । अनेक प्रकार के घरेलू यत्न करने पर भी कांटा नहीं निकल सका, तब उसने अपने अनुचरों को बुला कर सारे नगर में मुनादी कराई कि यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र आदि शौरिकदत्त के गले में लगे हुए मच्छी के कांटे को बाहिर किकाल कर उसे अच्छा कर दे तो वह उस को बहुत सा धन देकर प्रसन्न करेगा, उस का घर लक्ष्मी से भर देगा।
अनुचरों ने सारे शहर में यह उद्घोषणा कर दी. और उसे सुन कर नगर के अनेक प्रसिद्ध वैद्य, वेद्यपुत्र तथा चिकित्सक आदि शौरिकदत्त के घर में पहुँचे, उन्होंने उसके गले को देखा, अपनी अपनी तीक्ष्ण और विलक्षण प्रतिभा के अनुसार उत को चिकित्सा प्रारम्भ की, वमन कराए गए, विधिपूर्वक गले को दबाया गया, स्थूल ग्रासों को खिला कर कांटे को नीचे उतारने का उद्योग किया गया, एवं यन्त्रों के द्वारा निकालने का यत्न किया गया, परन्तु वे सब के सब अनुभवी वैद्य, मेधावी चिकित्सक आदि उस कांटे को बाहिर निकालने या भीतर पहुँचाने में असफल ही रहे, तब वे हताश हो शौरिकदत्त को जवाब दे कर वहां से अपने अपने स्थान को प्रस्थान कर गए, और वैद्यादि के "हम इस कांटे को निकालने में सर्वथा असमर्थ हैं। इस निराशाजनक उत्तर को सुन कर शौरिकदत्त को बड़ा भारी कष्ट हुया और उसी कष्ट से सूख कर वह अस्थिपंजर मात्र रह गया । उस कांटे के विषेले प्रभाव से उस का शरीर विकृत हो गया. उस के मुख से पूय और रुधिर प्रवाहित होने लगा । इस वेदना से उस का शरीर एक मात्र हड्डियों का ढांचा ही रह गया। प्रतिक्षण प्रतिपल वह वेदना से पीड़ित होता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा ।
भगवान् महावीर स्वामी फरमाने लगे कि हे गौतम : यह वही शौरिकदत्त मच्छीमार है, जिस को तुमने शौरिकपुर नगर में मनुष्यों के जमघट में देखा है । ये सब कुछ उसके कमों का ही प्रत्यक्ष फल है । विचारशील मानव को उस के जीवन से उपयुक्त शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । इस की दुर्दशा को देख कर अात्मसधार को शिक्षा ग्रहण करने वाले तो लाखों में दो चार ही मिलेंगे, किन्तु उसे देख कर दूसरी ओर मुंह फिराने वाले संसार में अनेक होंगे । परन्तु जीवन की महानता के वे ही भाजन बनते है जो उपयक्त शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अपना आत्मश्रेय साधने में सदा तत्पर रहते हैं ।
-सिंघाडग जाव पहेसु- यहां पठित-जाव-यावत्-पद-तिय, चउक्क, चञ्चर, महापह-इन पदों का परिचायक है। सिंघाड़ा-शृगाटक आदि पदों का अर्थ पृष्ठ ६९ पर लिखा जा चुका है । पाठक वहीं पर देख सकते हैं।
-वेज्जो वा ६ -- यहां पर दिए गए ६ के अंक से पृष्ठ ६५ पर पढ़े गए- वेज्जपुत्तो वा, जाणो वा, जाणयपुत्तो वा, तेइच्छिो वा, तेइच्छियपुत्तो वा- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ वहीं पर लिख दिया गया है ।
- कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसंति - यहां पढा गया जाव - यावत् पद-तह त्ति
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