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.. श्री विपाक सुत्र--
[अष्टम अध्याय
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नामक कोष में-निन्दुः-ऐसा मान कर उस की:-मृतवत्सायाम् । निंद्यतेऽप्रजात्वेनाऽसौ-"ऐसा अर्थ किया है। अर्थात् सन्तति के विनष्ट हो जाने से जो नारी निंदा का भाजन बने वह । दूसरे शब्दों में मृतवत्सा को निन्दु कहते है। संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ नामक कोष में -निन्दु:-ऐसा रूप मानते हुए उस का ". जिस के पास मरा हुआ बच्चा हो वह -ऐसा अर्थ लिखा है । इन सभी विकल्पों में कौन विकल्प वास्तविक है ।, यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है ?
-जहा गंगादत्ताप चिन्ता- यहां पठित चिन्ता पद पृष्ठ ३९६ तथा ३९७ पर पढ़े गये "-एवं वा अहं सागरदत्तणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूइ वासाइ उरालाई-से ले ३र-प्रोवाइयं उवाइणित्तए एवं संपेहेति-"यहां तक के पदों का परिचायक है । अंतर मात्र इतना है कि वहां सेठानी गंगादत्ता तथा सागरदत्त सार्थवाह एवं उम्बरदत्त यक्ष का नामोल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में समुद्रदत्त मत्स्यबंध - मच्छीमार तथा समुद्रदत्ता एवं शौरिक यक्ष का। नामगत भिन्नता की भावना कर लेनी चाहिये। शेष वर्णन समान ही है।
-श्रापुच्छणा-यह पद पृष्ठ ३९७ पर पढ़े गये "-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिए ! तुब्भेहिं अम्भणुराणाता जाव उवाइणित्तर-"इस पाठ का बोधक है । अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से उम्बरदत्त यक्ष की मनौति मानने के लिये पूछा था, उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने मत्स्यबध-मच्छीमार समुद्रदत्त को शौरिक यक्ष की मनौती मानने की अभ्यर्थना की । - -श्रोवयाइयं - यह पद "-तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया समुददत्तणं मच्छंधेणं एतमढे अब्भणुगणाता समाणी सुबहुं पुष्फ० मित्त० महिलाहिं -" से ले कर -तो णं जाव उवाइणति उवाइणित्ता जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिसं पडिगता- यहां तक के पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ सप्तमाध्ययन में पृष्ठ ४०६ तथा ४०७ पर लिखा जा चुका है । अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से आजा मिल जाने पर उम्बरदत्त यक्ष के पास पुत्रप्राप्ति के लिये मनौती मानी थी, उसी प्रकार समुद्रदत्त मत्स्यबंधक-मच्छीमार से आज्ञा प्राप्त कर समद्रदत्ता ने पुत्रप्राप्ति के लिये शौरिक यक्ष के सामने मनौती मानी । नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है ।
दोहलो जाव दारगं-यहां पठित जाव-यावत्-पद से पृष्ठ ४०९ से लेकर पृष्ठ ४१० तथा ४१३ पर पढ़े गए " - धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव फले-" से ले कर" - वराहं मासाणं बहुपडिपुराणाणं-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। वर्णन समान होने पर भी नामगत भिन्नता यहां पर पूर्व की भान्ति जान लेनी चाहिये ।
-पयाता जाव जम्हा-यहां पठित जाव - यावत् पद पृष्ठ ४१४ पर पठित "-ठिति जाव नामधिज्ज करेन्ति-" इन पदों का परिचायक है। तथा-पंचधातो. उम्मुक्कवालभावे-यहां पठित जाव -यावत् पद पृष्ठ १५७ पर पढ़े गए"-परिग्गहिते तंजहा-वीरधातीर-"से ले कर" -सुहंसुहेणं परिवड्ढति-"यहां तक के पदों का, तथा"--तते णं से सोरियदत्त-"इन पदों का परिचायक है।
-मित्त० रोयमाणे - यहां दिये गये बिन्दु से" -णाइ-नियग-सयण-सम्बन्धि-परिजणेणं सद्धिं संपरिबुडे- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मित्र आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० के टिप्पण में लिखा जा चुका है ।
अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में शौरिकदत्त के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं - मूल--'अन्नया कयाइ सयमेव मच्छंधपहत्तरगत्तं उवसंपज्जित्ता णं विहरति ।
(१) छाया-अन्यदा कदाचित् स्वयमेव मत्स्यबन्धमइत्तरकत्वमुपसंपद्य विहरति । तत: स शौरिको दारको मत्स्यवन्धो जातः, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । ततस्तस्य शौरिकमत्स्यबन्धस्य
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