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४४२]
श्रो विपाक सूत्र
[अष्टम अध्याय
आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहान्त, जेण जाणंति तारिसं ॥४२॥
शास्त्रों में प्रमाद-कर्तव्य कार्य में अप्रवृत्ति और अकर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति रूप असावधानता, पांच प्रकार के बतलाए गए हैं जो कि जीव को संसार में जन्म तथा मरण से जन्य दुःखरूप प्रवाह में अनादि काल से प्रवाहित करते रहते हैं । उन में पहला प्रमाद मध है। मद्य का अथ है मदिराशराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना । मद्य शुभ आत्मपरिणामों को नष्ट करता है और अशुभ परिणामों को उत्पन्न । मदिरा के सेवन से जहां अन्य अनेकों हानियां दृष्टिगोचर होती हैं वहां इस में अनेकों जीवों की उत्पत्ति होते रहने से जीवहिंसा का भी महान पाप लगता है। लौकिक जीवन को निदित अप्रमाणित एवं पाशविक बना देने के साथ २ परलोक को भी यह मदिरासेवन बिगाड़ देता है । आचार्य हरिभद्र ने बहुत सुन्दर शब्दों में इस से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों का वर्णन किया है । आप लिखते हैं -
वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो।
विद्वषो ज्ञाननाराः ग्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः ॥ पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः ।। कष्टं वै षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ।।
(हरिभद्रियाष्टक १९ वां श्लोक टीका) अर्थात् - मद्यपान से १-शरीर कुरूप और बेडौल हो जाता है । २-शरीर व्याधियों का घर बन जाता है । ३ - घर के लोग तिरस्कार करते हैं । ४ - कार्य का उचित समय हाथ से निकल जाता है । ५ - द्वेष उत्पन्न हो जाता है । ६- ज्ञान का नाश होता है। -स्मृति और ८ बुद्धि का विनाश हो जाता है ९-सज्जनों से जुदाई होती है । १० - वाणी में कठोरता आ जाती है। ११ - नीचों की सेवा करना पड़ती १२ -कुल को होनता होती है । १३ – शक्ति का ह्रास होता है । १४-धर्म, १५-काम एवं १६ - अर्थ की हानि होती है। इस प्रकार आत्मपतन करने वाले मद्यपान के दोष १६ होते है।
जैनदर्शन की भांति जैनेतरदर्शन में भी मदिरापान को घृणित एव दुर्गतिप्रद मान कर उस के त्याग के लिए बड़े मौलिक शब्दों में प्रेरणा दी गई है। स्मृतिग्रन्थ में लिखा है -
कृमिकीटपतंगानां, विड्भुजां चैव पक्षिणाम्।
हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो ब्राह्मणां व्रजेत् ॥ (मनुस्मृति अ० १२, श्लोक ५६)
अर्थात् मदिरा के पीने वाला ब्राह्मण, कृमि, कीट-बड़े कीड़े, पतङ्ग, सुयर, और अन्य हिंसा करने वाले जीवों, की योनियों को प्राप्त करता है।
ब्रह्महा च सुरापश्च, स्तेयी च गुरुतल्पगः ।
एते सर्वे पृथक ज्ञयाः, महापातकिनो नराः ॥ (मनुस्मृति अध्याय ९/२३५)
अर्थात् ब्राह्मण को मारने वाला, मदिरा का पीने वाला, चौर्यकर्म करने वाला और गुरु की स्त्री के साथ गमन करने वाला ये सब महापातको-महापापी समझने चाहिए । अर्थात् ब्रह्महत्या तथा मदिरापान आदि ये सब महापाप कहलाते हैं । सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निरों सुरां पिबेत् ।
तयास काये निर्दग्धे, मुच्यते किल्बिषात्ततः । (मनुस्मृति, अध्याय ११/९०)
अर्थात् मोह-अजान से मदिरा को पीने वाला द्विज तब मदिरापान के पाप छुटता है जब गरम २ जलती हुई मदिरा को पीने से उस का शरीर दग्ध हो जाता है ।
यस्य कायगतं ब्रह्म, मद्यनाप्लाव्यते सकृत् ।
तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं, शूद्रत्वं च स गच्छति ॥ (मनुस्मृति, अध्याय, ११/९७) अर्थात जिस ब्राह्मण का शरीरगत जीवात्मा एक बार भी मदिरा से मिल जाता है. तात्पर्य यह है कि
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